‘‘क्या बात है, पापा, आजकल आप अलग ही मूड में रहते हैं. कुछ न कुछ गुनगुनाते रहते हैं. पहले तो आप को इस रूप में कभी नहीं देखा. इस का कोई तो कारण होगा,’’ कुनिका के इस सवाल पर कुछ पल मौन रहे. फिर ‘‘हां, कुछ तो होगा ही’’ कह राजेशजी चाय का घूंट भरते हुए अखबार ले कर बैठ गए.

इकलौती लाड़ली कुनिका कब चुप रहने वाली थी, ‘‘कोई ऐसावैसा काम न कर बैठना, पापा. अपनी उम्र और हमारी इज्जत का ध्यान रखना.’’

क्या यह उन की वही नन्ही बिटिया है जिसे पत्नी के गुजर जाने के बाद मातापिता दोनों का लाड़ दिया. तब बेटी और नौकरी बस 2 ही तो लक्ष्य रह गए थे. पर जब 19 वर्षीया कुनिका, असगर के साथ भाग गई थी तब भी बिना किसी शिकायत और अपशब्द के बेटी की इच्छा को पूरी तरह मान देने की बात, अखबारों में अपील कर के प्रसारित करवा दी. 4 दिन बाद कुनिका, असगर को छोड़ वापस आ गई थी और अपने इस गलत चुनाव के लिए पछताई भी थी.

तब शर्मिंदगी से बचने व बेटी के भविष्य के लिए उन्होंने अपना तबादला भोपाल करा लिया. अब समय का प्रवाह, उन्हें 65 बसंत के पार ले आया था. जीवन यों ही चल रहा था कि पिछले 1 वर्ष से पार्क में सैर करते हुए रेनूजी से परिचय हुआ. उन की सादगी, शालीनता, बातचीत में मधुरता देख उन के प्रति एक अलग सा मोह उत्पन्न हो रहा था. रेनूजी, यहां छोटे बेटेबहू के साथ रह रही थीं. बड़ा बेटा परिवार सहित अमेरिका में रह रहा था.

‘‘अपने बारे में कुछ सोचती हैं कभी?’’ एक दिन बातों ही बातों में राजेशजी ने कहा.

‘‘अपने बारे में अब सोचने को रहा ही क्या है? हाथपांव चलते जीवन बीत जाए,’’ कहते हुए रेनूजी का चेहरा उदास हो उठा था.

कुछ दिनों बाद, राजेशजी ने जीवनभर का साथ निभाने का प्रस्ताव रेनूजी के समक्ष रख दिया, ‘‘क्या आप मेरे साथ बाकी का जीवन बिताना चाहेंगी? अकेलेपन से हमें मुक्ति मिल जाएगी.’’

‘‘इस उम्र में यह मेरा परिवार, आप का परिवार, समाज, हम…’’ शब्द गले में ही अटक गए थे.

‘‘एक विधवा या विधुर को जीवन बसाने की तमन्ना करना क्या गुनाह है? हम ने अपने कर्तव्य पूरे कर लिए हैं. अब कुछ अपने लिए तलाश लें तो भला गलत क्या है? तुम्हारी स्वीकृति हम दोनों को एक नया जीवन देगी.’’

‘‘हां, यह सच है कि अकेलापन, मन को पीडि़त करता है. पर जीवन तो बीत ही गया, अब कितना बचा है जो…’’ कंपित स्वर था रेनूजी का, ‘‘अब मैं चलती हूं,’’ तेजी से वे चली गईं.

इधर, 10-12 दिनों से वे घर से नहीं निकलीं. उस दिन माला, रोहन से कह रही थी, ‘‘आजकल मम्मी घूमने नहीं जातीं. गुमसुम बैठी रहती हैं. मातम जैसा बनाए रखती हैं चेहरे पर.’’

‘‘कोई बात नहीं. अपनेआप ठीक हो जाएगा मूड. तुम टाइम से तैयार हो जाना. लंच पर रमेश के घर जाना है.’’

बेटे के इस उत्तर पर, रेनूजी की आंखें भर आईं. न जाने क्या सोच कर राजेशजी को मोबाइल पर नंबर लगा दिया. उधर से राजेशजी का मरियल स्वर सुन वे घबरा गईं, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, 8 दिनों से तबीयत थोड़ी खराब चल रही है. बेटीदामाद लंदन गए हुए हैं. 2-4 दिनों में ठीक हो जाऊंगा,’’ और हलकी सी हंसी हंस दिए वे.

उस दिन 2 घंटे बाद, रेनूजी दूध, फल आदि ले राजेशजी के घर पहुंच गईं. तब राजेशजी के चेहरे की खुशी व तृप्ति, रेनूजी को अपने अस्तित्व की महत्ता दर्शा गई. आज का दिन उन की ‘स्वीकृति’ बन गया.

2 हफ्तों बाद, एकदूसरे को माला पहना, जीवनसाथी बन, रेनूजी के चेहरे पर संतोष के साथसाथ दुश्चिंता केभाव भी स्पष्ट थे. दोनों परिवारों के बच्चों से सामना करने का संकोच गहराता जा रहा था.

‘‘मुझे तो घबराहट व बेचैनी हो रही है कि बच्चे क्या कहेंगे? आसपास के लोग क्या कहेंगे? पांवों में आगे बढ़ने की ताकत जैसे खत्म हो रही है.’’

‘‘सब ठीक होगा. मैं हूं न तुम्हारे साथ. हर स्वीकृति कुछ समय लेती है. अब हमारे कदम रुकेंगे नहीं पहले मेरे घर चलो.’’

छोटी बिंदी और मांग में सिंदूरभरी महिला को पापा के साथ दरवाजे पर खड़ा देख कुनिका के अचकचा कर देखने पर परिचय कराते हुए राजेशजी बोले, ‘‘बेटी, ये तुम्हारी मां हैं. हम ने आज ही विवाह किया है. और…’’

‘‘यह क्या तमाशा है, पापा? शादी क्या कोई खेल है जो एकदूसरे को माला पहनाई और बन गए…’’

‘‘पहले पूरी बात तो सुनो, अगले माह कोर्टमैरिज भी होगी,’’ बीच में ही राजेशजी ने जवाब दे डाला.

‘‘कुछ भी हो, यह औरत मेरी मां नहीं हो सकती. इस घर में यह नहीं रह सकती,’’ वह उंगली तानते हुए बोली.

‘‘पर यह घर तो मेरा है और अभी मैं जिंदा हूं. इसलिए तुम इन्हें रोक नहीं सकतीं.’’

तभी रेनूजी ने आगे बढ़ते हुए कहा, ‘‘सुनो तो, बेटी.’’

‘‘मैं आप की बेटी नहीं हूं. मत करिएयह नाटक,’’ कुनिका पैर पटकती अंदर चली गई.

‘‘आओ रेनू, तुम भीतर आओ,’’ रेनूजी का उतरा चेहरा देख, राजेशजी ने समझाते हुए कहा, ‘‘हमारे इस फैसले को ये लोग धीरेधीरे अपनाएंगे. थोड़ा सब्र करो, सब ठीक हो जाएगा.’’

चाय बनाने के लिए रेनूजी के रसोई में घुसते ही, कुनिका ‘हुंह’ के साथ लपक कर बाहर निकल आई. पीछेपीछे राजेशजी भी वहीं पहुंच गए.

‘‘मेरे बच्चे भी न जाने क्याकुछ कहेंगे, कैसा व्यवहार करेंगे,’’ उन के पास जाने की सोच कर ही दिल बैठा जा रहा है,’’ चाय कपों में उड़ेलते हुएरेनूजी कह रही थीं, ‘‘मैं ने रोहन को बता दिया है मैसेज कर के. बस, अब बच्चों को एहसास दिलाना है कि हम उन के हैं, वे हमारे हैं. हम अलग रहेंगे पर सुखदुख में साथ होंगे. कोशिश होगी कि हम उन पर बंधन या बोझ न बनें और उन की खुशी…’’

तभी कुनिका की दर्दभरी चीख सुन सीढि़यों की तरफ से आती आवाज पर दोनों उस ओर लपके. वह कहीं जाने के लिए निकली ही थी कि ऊंची एड़ी की सैंडिल का बैलेंस बिगड़ने से 4 सीढि़यों से नीचे आ गिरी. रेनूजी व राजेशजी ने सहारा दिया और उस के कक्ष में बैड पर लिटा दिया. पहले तो दर्दनिवारक दवा लगाई फिर रेनूजी जल्दी से हलदी वाला गरम दूध ले आईं. कुनिका का पांव देख रेनूजी समझ गईं कि मोच आई है. राजेशजी से मैडिकल बौक्स ले कर उस में से पेनकिलर गोली दी. साथ ही, पांव में क्रेपबैंडेज भी बांध दिया.

‘‘परेशान न हो, कुनिका. कुछ ही घंटों में यह ठीक हो जाएगा,’’ कहते हुए रेनूजी ने पतली चादर उस के पैरों पर डाल उस के माथे पर हाथ फेर दिया.

धीरेधीरे दर्द कम होता गया. अब कुनिका आंखें बंद किए सोच रही थी, ‘सच में ही इस औरत ने पलक झपकते ही यह स्थिति सहज ही संभाल ली. अकेले पापा तो कितने नर्वस हो जाते.’ कुछ बीती घटनाओं को याद करते हुए वह सोचने लगी, ‘पापा वर्षों से अकेलेपन में जीते आए हैं. अब उन्हें मनपसंद साथी मिला है तो मैं क्यों चिढ़ रही हूं?

‘‘बेटी, अब कैसा लग रहा है?’’ माथे पर रेनूजी का गुनगुना स्पर्श, मन को ठंडक दे गया.

‘‘मैं ठीक हूं, आप परेशान न हों,’’ एक हलकी मुसकान के साथ कुनिका का जवाब पा रेनूजी का मन हलका हो गया.

अगले दिन रेनूजी अपने द्वार की घंटी बजा, राजेशजी के साथ दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा में खड़ी थीं. दरवाजा खुला, माला ने दोनों को एक पल देखा और बिना कुछ कहे भीतर की ओर बढ़ गई. सामने लौबी में रोहन चाय पी रहा था. वह न तो बोला, न उस ने उठने का प्रयास किया और न इन लोगों से बैठने को कहा. राजेशजी स्वयं ही आगे बढ़ कर बोले, ‘‘हैलो बेटे, मैं राजेश हूं. तुम्हारी मां का जीवनसाथी. हम जानते हैं कि हमारा यह नया रिश्ता तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा पर तुम्हें अब अपनी मां की चिंता करने की जरूरत नहीं होगी. हम दोनों…’’

‘‘बेकार की बातें न करें. हमारे बच्चे, समाज, आसपास के लोगों के बारे में कुछ तो सोचा होता. इतनी उम्र निकल गई और अब शादी रचाने की इच्छा जागृत हो गई आप लोगों की. क्या हसरत रह गई है अब इस उम्र में? मेरी मां तो ऐसा स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थीं. यह सब आप का फैलाया जाल है. क्या इस वृद्धावस्था में यह शोभा देता है? आखिर, कैसे हम अपने रिश्तेदारों में गरदन उठा पाएंगे?’’ क्रोध और तनाववश रोहन का चेहरा विदू्रप हो उठा था.

तभी रेनूजी सामने आ गईं, ‘‘कौन से रिश्तेदारों की बात कर रहा है. जब मैं 2 छोटे बच्चों के साथ मुसीबतों से जूझ रही थी तब तो कोई अपना सगा सामने नहीं आया. तुम्हारे पापा की मृत्यु के साथ जैसे मेरा अस्तित्व भी समाप्त हो गया था. पर मैं जिंदा थी. सच पूछो तो मुझे स्वयं पर गर्व है कि मैं ने अपना कर्तव्य पूरी तरह निभाया, तुम बच्चों को ऊंचाई तक पहुंचाया.’’

तभी पास रखी कुरसी खींच, उस पर बैठते हुए राजेशजी बोले, ‘‘तुम्हारा कहना कि हमारी उम्र बढ़ गई है, तभी तो यह रिश्ता हसरतों का नहीं, साथ रहने व संतुष्टि पाने का है. बेटे, एक बार हमारी भावना, संवेदना पर गौर करना, सोचना और हमें अपना लेना. हम तो तुम्हारे हैं ही, तुम भी हमारे हो जाना. तुम्हारा छोटा सा साथ, हमें ऊर्जा व खुशी से लबालब रखेगा. अब हम चलते हैं.’’

उसी शाम कुनिका को भी फोन कर दिया, ‘‘आज गौरव भी भारत आ जाएगा. परसों रविवार की सुबह तुम लोग, साकेत वाले फ्लैट पर आ जाना. और हां, रेनूजी का परिवार भी निमंत्रित है. तुम सब की प्रतीक्षा होगी हमें.’’ फोन डिसकनैक्ट करने ही वाले थे कि उधर से आवाज आई, ‘‘पापा, हम जरूर आएंगे. बायबाय.’’ राजेशजी के चेहरे पर मुसकराहट छा गई.

वर्षों पूर्व छुटी एक ही रूम में सोने की आदत, अपनाने में असहजता व कुछ अजीब सा लग रहा था राजेशजी व रेनूजी को. फिर भी बातें करतेकरते एक सुकून के साथ कब वे दोनों नींद की आगोश में समा गए, पता ही न लगा. गहरी नींद में सोई हुई रेनूजी, अलार्म की घंटी पर, हलकी सी चीख के साथ जाग पड़ीं, ‘‘क्या हुआ? कौन है?’’

‘‘अरे, कोई नहीं. यह तो घड़ी का अलार्म बजा है.’’

‘‘अभी तो शायद 4 या साढ़े 4 ही बजे होंगे और यह अलार्म?’’

‘‘हां, मैं इतनी जल्दी उठता हूं, फिर फ्रैश हो कर सैर करने के लिए निकल जाता हूं. तुम चलोगी?’’ राजेशजी के पूछने पर, ‘‘अरे नहीं, मैं आधी रात के बाद तो सो पाई हूं कि…’’ परेशानी युक्त स्वर में जवाब आया.

‘‘क्यों? क्या तुम्हें नींद न आने की समस्या है?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. असल में नई जगह पर नींद थोड़ी कठिनाई से आ पाती है.’’

जीवन में कई ऐसी बातें होती हैं जिन पर गौर नहीं किया जाता, खास महत्त्व नहीं दिया जाता. और फिर अचानक ही वे महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं, जैसे कि राजेशजी को चटपटी सब्जी, एकदम खौलती हुई चाय, मीठे के नाम पर बूंदी के लड्डू बहुत पसंद हैं. इस के विपरीत रेनूजी को सादा, हलके मसाले की सब्जी और बूंदी के लड्डू की तो गंध भी पसंद नहीं आती. पर अब वे दोनों ही एकदूसरे की पसंद पर ध्यान देने लगे हैं, एकदूसरे की खुशी का ध्यान पहले करते हैं.

रविवार की दोपहर, राजेशजी व रेनूजी के घर में दोनों परिवारों के बच्चे एकदूसरे से परिचित हो रहे थे. रोहन और माला चुपचुप थे पर कुनिका और गौरव बातों में पहल कर रहे थे. तभी राजेशजी की आवाज पर सब चुप हो गए.

‘‘बच्चों, हम कुछ कहना चाहते हैं. हमारी इस शादी से किसी के परिवार पर भी आर्थिक स्तर पर कोई दबाव नहीं होगा. प्रौपर्टी बंट जाएगी या ऐसी ही कुछ और समस्या का सामना होगा, ऐसा कुछ भी नहीं होगा. हम दोनों ने कोर्ट में ऐफिडेविट बनवा कर निश्चय किया है कि हम पतिपत्नी बन कर एकदूसरे की चलअचल संपत्ति पर हक नहीं रखेंगे. अपनी इच्छा से अपनी संपत्ति गिफ्ट करने की स्वतंत्रता होगी. अपनीअपनी पैंशन अपनी इच्छा से खर्च करने की मरजी होगी. खास बात यह कि तुम्हारी मां अपनी पैंशन को हमारे घर के खर्च पर नहीं लगाएंगी. यह खर्च मैं वहन करूंगा. आर्थिक सहायता नहीं, पर भावनात्मक या कभी साथ की जरूरत हुई तो हम बच्चों की राह देखेंगे. हम तो तुम्हारे हैं ही, बस, तुम्हें अपना बनता हुआ देखना चाहेंगे. और भी कुछ जिज्ञासा हो तो आप पूछ सकते हैं,’’ इतना कह राजेशजी, प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में चुप हो गए.

‘‘हम आप के साथ हैं, आप की खुशी में हम भी खुश हैं,’’ दोनों परिवारों के सदस्यों ने समवेत स्वर में कहा. तभी राजेशजी ने रेनूजी का हाथ धीरे से थामते हुए कहा, ‘‘शेष जीवन, कटेगा नहीं, व्यतीत होगा.’’

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