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कहानी- वीना टहिल्यानी

मिली के मन से एक आह सी निकली, ‘तो आखिर, मैं आ ही गई अपने नगर, अपने शहर.’ जौन ने भारत के बारे में लाख पढ़ रखा था पर जो आंखों से देखा तो चकित रह गया. ज्योंज्यों गंतव्य नजदीक आ रहा था, मिली के दिल की धुकधुकी बढ़ती जा रही थी. कई सवाल मन में उठ रहे थे.

कैसी होंगी फरीदा अम्मां? पहचानेंगी तो जरूर. एकाएक ही सामने पड़ कर चौंका दूं तो? तुरंत न भी पहचाना तो क्या...नाम सुन कर तो सब समझ जाएंगी...मृणाल...मृणालिनी कितना प्यारा लग रहा था आज उसे अपना वह पुराना नाम.

लोअर सर्कुलर रोड के मोड़ पर, जिस बड़े से फाटक के पास टैक्सी रुकी वह तो मिली के लिए बिलकुल अजनबी था पर ऊपर लगा नामपट ‘भारती बाल आश्रम’ बिलकुल सही.

टैक्सी के रुकते ही वर्दीधारी वाचमैन ने दरवाजा खोला और सामान उठवाया.

अंदर की दुनिया तो मिली के लिए और भी अनजानी थी. कहां वह लाल पत्थर का एकमंजिला भवन, कहां यह आधुनिक चलन की बहुमंजिला इमारत.

सामने ही सफेद बोर्ड पर इमारत का इतिहास लिखा था. साथ ही साथ उस का नक्शा भी बना था. मिली ठहर कर उसे पढ़ने लगी.

सिर्फ 5 वर्ष पहले ही, केवलरामानी नाम के सिंधी उद्योगपति के दान से यह बिल्ंिडग बन कर तैयार हुई थी. मिली भौंचक्क सी रह गई. लाल गलियारे और हरे गवाक्ष, ऊंची छतों वाला शीतल आवास काल के गाल में समा चुका था. मिली अनमनी हो उठी.

रिसेप्शन पर बैठी लड़की ने रजिस्टर में उन का नाम पता मिलाया. गेस्ट हाउस में उन की बुकिंग थी. कमरे की चाबी निकाल कर जब लड़की उन का लगेज लिफ्ट में लगवाने लगी तो मिली ने डरतेडरते पूछा, ‘‘क्या मैं पहली मंजिल पर बनी नर्सरी को देखने जा सकती हूं?’’

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