‘‘आज पप्पू लौटे तो उस से आरक्षण के लिए कहूं.’’

‘‘आप को यहां कोई तकलीफ है, अम्मांजी?’’ पत्रिका पलटते हुए प्रमिला ने सिर उठा कर पूछा.

‘‘कैसी बात करती हो. अपने घर में भी कोई तकलीफ महसूस करता है, पप्पी.’’

अपनी 3 बहुओं का बड़ी, मझली और छोटी नामकरण करने के बाद अम्मांजी ने अपने सब से छोटे पप्पू की बहू का नाम पप्पी रख लिया था.

‘‘अभी आप को आए कौन से ज्यादा दिन हुए हैं, जो जाने की सोचने लगीं. अभी तो आप कहीं घूमीं भी नहीं. हम तो यही सोचते रहे कि बरसात थमे तो श्रीनगर, पहलगाम चलें.’’

‘‘घूमना तो फिर भी होता रहेगा लेकिन अभी मेरा इलाहाबाद पहुंचना जरूरी है.’’

‘‘छोटे भाई साहब ने तो लिखा है कि अस्पताल में इंतजाम पक्का हो गया है, फिर आप जा कर क्या करेंगी?’’

‘‘तुम समझती नहीं. अस्पताल में तो बिना रोग के भी दाखिल होना पड़े तो बाकी लोगों की दौड़ ही दौड़ हो जाती है. और फिर यह तो अंधी खेती है. ठीक से निबट जाए तो कुछ भी नहीं, वैसे होने को सौ बवाल...’’

‘‘सब ठीक ही होगा. आप बहुत ऊंचनीच सोचती रहती हैं.’’

‘‘सोचना तो सभी कुछ पड़ता है. दशहरा कौन सा दूर है. फिर 20-25 दिन पहले तो पहुंचना ही चाहिए.’’

‘‘सो तो ठीक है, लेकिन यहां अकेले मेरा मन घबराएगा. यह तो सुबह के गए शाम को भी देर से ही लौटते हैं,’’ प्रमिला के चेहरे पर उद्विग्नता छा गई.

‘‘बुरा क्या मुझे नहीं लगता? लेकिन सिर्फ अपने को देख कर दुनिया कहां चलती है, बेटी? मन लगाने के सौ तरीके हैं. तुम किताब भी तो इसीलिए पढ़ती हो.’’

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