सौम्या के महीनेभर की होते ही सुधा उसे ले कर कोलकाता आ गई. इस के बाद केशव की शादी पर ही सुधा अपने मायके गई थी.
सुधा ने सौम्या को बहुत ही नाजों से पाला था. वह उसे न तो कहीं अकेले भेजती थी और न ही किसी से मेलजोल रखने देती थी. स्कूल जाने के लिए भी अलग से गाड़ी की व्यवस्था कर रखी थी सौम्या के लिए.
यों अकेले पलती सौम्या साथी के लिए तरसने लगी. वह सोने के पिंजरे में कैद चिडि़या की तरह थी जिस के लिए खुला आसमान केवल एक सपना ही था. वह उड़ना चाहती थी, खुली हवा में सांस लेना चाहती थी मगर सुधा ने उसे पंख खोलने ही नहीं दिए थे. उसे बेटी का साधारण लोगों से मेलजोल अपने स्टेटस के खिलाफ लगता था. हां, सौम्या के लिए खिलौनों और कपड़ों की कोई कमी नहीं रखी थी सुधा ने.
धीरेधीरे वक्त के पायदान चढ़ती सौम्या ने अपने 16वें साल में कदम रखा. इसी बीच केशव एक प्रतिष्ठित डाक्टर बन चुका था. वह नोखा छोड़ कर अब बीकानेर शिफ्ट हो गया था, वहीं लोकेश एक पुलिस अधिकारी बन कर क्राइम ब्रांच में अपनी सेवाएं दे रहा था. दोनों भाइयों की आर्थिक स्थिति सुधरने से अब सुधा के मन में उन के लिए थोड़ी सी जगह बनी थी, मगर इतनी भी नहीं कि वह हर वक्त मायके के ही गुण गाती रहे. जबजब सुधा को कोई जरूरत आन पड़ती थी, वह अपने भाइयों से मदद अवश्य लेती थी. मगर काम निकलने के बाद वह उन्हें मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंकती थी. लोकेश और केशव उस के स्वभाव को जान चुके थे, इसलिए वे उस का बुरा भी नहीं मानते थे और जरूरत पड़ने पर बहन के साथ खड़े होते थे.