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‘‘यार तू बड़ी खुशनसीब है, तेरी बेटी है,’’ शोभा बोली, ‘‘बेटियां मातापिता का दुखदर्द हृदय से महसूस करती हैं.’’‘‘नहीं यार, मत पूछ, आजकल की बेटियों के हाल. वे हमारे समय की बेटियां होती थीं जो मातापिता, विशेषकर मां, का दुखदर्द शिद्दत से महसूस करती थीं. आजकल की बेटियां तो मातापिता का सिरदर्द बन कर बेटों से होड़ लेती प्रतीत होती हैं. तेरी बेटी नहीं है न, इसलिए कह रही है ऐसा,’’ एक बेटी की मां जयंति बोली, ‘‘बेटी से अच्छी आजकल बहू होती है. बेटी तो हर बात पर मुंहतोड़ जवाब देती है, पर बहू दिल ही दिल में भले ही बड़बड़ाए, पर सामने फिर भी लिहाज करती है, कहना सुन लेती है.’’

‘‘आजकल की बहुओं से लिहाज की उम्मीद करना… तौबातौबा. मुंह से कुछ नहीं बोलेंगी, पर हावभाव व आंखों से बहुतकुछ जता देंगी, रक्षा ने जयंति का प्रतिवाद करते हुए कहा, ‘‘जिन बेटियों का तू अभीअभी गुणगान कर रही थी, आखिर वही तो बहुएं बनती हैं, ऊपर से थोड़े ही न उतर आती हैं. ऐसा नाकों चने चबवाती हैं आजकल की बहुएं, बस, अंदर ही अंदर दिल मसोस कर रह जाओ. बेटे पर ज्यादा हक नहीं जता सकते, वरना बहू उसे ‘मां का लाड़ला’ कहने से नहीं चूकेगी.’’

शोभा दोनों की बातें मुसकराती हुई सुन रही थी. एक लंबा निश्वास छोड़ती हुई बोली, ‘‘अब मैं क्या जानूं कि बेटियां कैसी होती हैं और बहू कैसी. न मेरी बेटी, न बहू. पता नहीं मेरा नखरेबाज बेटा कब शादी के लिए हां बोलेगा, कब मैं लड़की खोजूंगी, कब शादी होगी और कब मेरी बहू होगी. अभी तो कोई सूरत नजर नहीं आती मेरे सास बनने की.’’

‘‘जब तक नहीं आती तब तक मस्ती मार,’’ रक्षा और जयंति हंसती हुई बोलीं, ‘‘गोल्डन टाइम चल रहा है तेरा. सुना नहीं, पुरानी कहावत है, पहन ले जब तक बेटी नहीं हुई, खा ले जब तक बहू नहीं आई. इसलिए हमारा खानापहनना तो छूट गया. पर तेरा अभी समय है बेटा. डांस पर चांस मार ले, मस्ती कर, पति के साथ घूमने जा, पिक्चरें देख, कैंडिललाइट डिनर कर, वगैरहवगैरह. बाद में नातीपोते खिलाने पड़ेंगे और बच्चों से कहना पड़ेगा, ‘जाओ घूम आओ, हम तो बहुत घूमे अपने जमाने में’ तो दिल तो दुखेगा न,’’ कह कर तीनों सहेलियां व पड़ोसिनें खिलखिला कर हंस पड़ीं और शोभा के घर से उन की सभा बरखास्त हो गई.

रक्षा, जयंति व शोभा तीनों पड़ोसिनें व अभिन्न सहेलियां थीं. उम्र थोड़ाबहुत ऊपरनीचे होने पर भी तीनों का आपसी तारतम्य बहुत अच्छा था. हर सुखदुख में एकदूसरे के काम आतीं. होली पर गुजिया बनाने से ले कर दीवाली की खरीदारी तक तीनों साथ करतीं. तीनों एकदूसरे की राजदार भी थीं और लगभग 15 वर्षों पहले जब उन के बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे थे. थोड़ा आगेपीछे तीनों के घर इस कालोनी में बने थे.

तीनों ही अच्छी शिक्षित महिलाएं थीं और इस समय अपने फिफ्टीज के दौर से गुजर रही थीं. जिस के पास जो था उस से असंतुष्ट और जो नहीं था उस के लिए मनभावन कल्पनाओं का पिटारा उन के दिमाग में अकसर खुला रहता.

लेकिन जो है उस से संतुष्ट रहने की तीनों ही नहीं सोचतीं. नहीं सोच पातीं जो उन्हें नियति ने दिया है कि उसे किस तरह से खूबसूरत बनाया जाए.

जयंति की एक बेटी थी जो कालेज के फाइनल ईयर में थी. रक्षा ने एक साल पहले बेटे का विवाह किया था और शोभा का बेटा इंजीनियर व प्रतिष्ठित कंपनी में अच्छे पद पर कार्यरत एक नखरेबाज युवा था. वह मां के मुंह से विवाह का नाम सुन कर नाकभौं सिकोड़ता और ऐसा दिखाता जैसे विवाह करना व बच्चे पैदा करना सब से निकृष्ठ कार्य एवं प्राचीन विचारधारा है और उस के जीवन के सब से आखिरी पायदान पर है. एक तरह से जब सब निबट जाएगा तो यह कार्य भी कर लेगा.

जयंति को अपनी युवा बेटी से ढेरों शिकायतें थीं, ‘घर के कामकाज को तो हाथ भी नहीं लगाती यह लड़की. कुछ बोलो तो काट खाने को दौड़ती है. कल को शादीब्याह होगा, तो क्या सास बना कर इसे खिलाएगी.’ जयंति पति के सामने बड़बड़ा रही होती. अपनी किताबों पर नजरें गड़ाए बेटी मां के ताने सुन कर बिफर जाती, ‘फिक्र मत करो, मु झे खाना बना कर कोई भी खिलाए. आप को तंग करने नहीं आऊंगी.’

बेटी तक आवाज पहुंच रही थी. बेवक्त  झगड़े की आशंका से जयंति हड़बड़ा कर चुप हो जाती. पर बेटी का पारा दिल ही दिल में आसमां छू जाता. वह जब टाइट जीन्स और टाइट टीशर्ट डाल कर कालेज या कोचिंग के लिए निकलती तो जयंति का दिल करता कि जीन्स के ऊपर भी उस के गले में दुपट्टा लपेट दे. पर मन मसोस कर रह जाती. घर में जब बेटी शौर्ट्स पहन कर पापा के सामने मजे से सोफे पर अधलेटी हो टीवी के चैनल बदलने लगती तो जयंति का दिमाग भन्ना जाता, ‘आग लगा दे इस लड़की के कपड़ों की अलमारी को’ और उस के दोस्त लड़के जब घर आते तो वह एकएक का चेहरा बड़े ध्यान से पढ़ती. न जाने इन में से कल कौन उस का दामाद बनने का दावा ठोक बैठे.

रोजरोज घर को सिर पर उठा मां से  झगड़ा करने वाली बेटी ने जब एक दिन प्यार से मां के गले में बांहें डालीं तो किसी अनहोनी की आशंका से जयंति का हृदय कांप गया. जरूर कोई कठिन मांग पूरी करने का वक्त आ गया है.

‘‘मम्मी, मेरे कुछ फ्रैंड्स कल लंच पर आना चाह रहे हैं. मैं ने उन्हें बताया है कि आप चाइनीज खाना कितना अच्छा बनाती हैं. बुला लूं न सब को?’’ वह मासूमियत से बोली. बेटी की भोलीभाली शक्ल देख कर जयंति का सारा लाड़दुलार छलक आया.

‘‘हांहां, बुला ले अपनी सहेलियों को. बना दूंगी मैं, कितनी हैं?’’‘‘मु झे मिला कर 8 दोस्त हो जाएंगे मम्मी. वे सारा दिन यहीं बिताने वाले हैं…’’ बेटी आने वालों के लिए गोलमाल जैंडर शब्द का इस्तेमाल करती हुई बोली. ‘‘ठीक है…’’

दूसरे दिन जयंति सुबह से बेटी की फरमाइश पूरी करने में लग गई. घर भी ठीक कर दिया. बेटी ने बाकी घर पर ध्यान भी नहीं दिया. सिर्फ अपना कमरा ठीक किया. ठीक 11 बजे घंटी बजी. दरवाजा खोला तो जयंति गिरतेगिरते बची. आगंतुकों में 4 लड़के थे और 3 लड़कियां. जिन लड़कों को वह थोड़ी देर भी नहीं पचा पाती थी, उन्हें उस दिन उस ने पूरा दिन  झेला और वह भी बेटी के कमरे में. आठों बच्चों ने वहीं खायापिया, वहीं हंगामा किया और खापी कर बरतन बाहर खिसका दिए. जयंति थक कर पस्त हो गई.

बेटी फोन पर जब खिलखिला कर चमकती आंखों से लंबीलंबी बातें करती तो जयंति का दिल करता उस के हाथ से फोन छीन कर जमीन पर पटक दे. फोन से तो उसे सख्त नफरत हो गई थी. मोबाइल फोन के आविष्कारक मार्टिन कूपर को तो वह सपने में न जाने कितनी बार गोली मार चुकी थी. सारे  झगड़े की जड़ है यह मोबाइल फोन.

बेटी कभी अपने दोस्तों के साथ पिकनिक पर जाती तो कभी लौंगड्राइव पर. हां, इन मस्तियों के साथ एक बात जो उन सभी युवाओं में वह स्पष्ट रूप से देखती, वह थी अपने भविष्य के प्रति सजगता. लड़के तो थे ही, पर लड़कियां उन से अधिक थीं. अपना कैरियर बनाने के लिए उन्मुख उन लड़कियों के सामने उन की मंजिल स्पष्ट थी और वे उस के लिए प्रयासरत थीं. घरगृहस्थी के काम, विवाह आदि के बारे में तो वे बात भी न करतीं, न उन्हें कोई दिलचस्पी थी.

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