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हाथ पोंछ कर माधवी चली गई. एक हफ्ता गुजर गया. आज रात की ट्रेन से सुकेश आने वाले थे. सुबह चाय पी कर शोभा गेट का ताला खोलने के लिए बाहर जा रही थी कि बरामदे की सीढ़ी से पैर लड़खड़ा गया. एक चीख मार कर वह वहीं बैठ गई. उस की जोर की चीख सुन कर ऋषभ और माधवी भागतेदौड़ते नीचे उतर कर उस के पास पहुंच गए. वह अपना पैर पकड़ कर कराह रही थी.

क्या हुआ मां? माधवी बोली.

‘‘अचानक से पैर लड़खड़ा गया सीढ़ी पर. दाएं पैर में बहुत दर्द हो रहा है.’’

‘‘ओह, कहीं फ्रैक्चर न हो गया हो,’’ कह कर ऋषभ शोभा को उठा कर अंदर ले आया. माधवी उस के पैरों के पास बैठ कर हलके हाथों से मलहम लगाती हुई बोली, ‘‘अभी डाक्टर के पास ले चलते हैं मां. चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा.’’ उस ने उस के पैर में कस कर क्रेप बैंडेज बांध दी.

दोनों उसे अस्पताल ले गए. एक्सरे में फ्रैक्चर नहीं आया. मोच आ गई थी. डाक्टर ने कुछ दिन आराम करने के लिए कहा. सबकुछ करा कर उसे घर छोड़ कर ऋषभ औफिस चला गया. लेकिन माधवी थोड़ी देर बाद उस के पास जा कर बैठ गई.

तू औफिस नहीं गई? वह आश्चर्य  से बोली.

नहीं मां, ऐसी हालत में आप को छोड़ कर औफिस कैसे चली जाऊं मैं. फिलहाल कुछ दिन की छुट्टी ले ली है. पापा भी आ जाएंगे आज. ऐसे में खाना भी कैसे बनाएंगी आप?’’

कुछ न बोला गया शोभा से. मन भर आया और आंखें भी. सुकेश के डर पर दिल के उद्गार भारी पड़ गए. ‘मेरी बेटी होती तो ऐसी ही होती,’ उस ने सोचा, ‘नहींनहीं, ऐसी ही क्यों होती, बल्कि यही है मेरी बेटी.’

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