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शादी जीवन को एक लय देती है. जैसे बिना साज के आवाज अधूरी है वैसे ही बिन शादी के जीवन अधूरा. जीवनसाथी का साथ अकेलेपन को दूर करता है.

‘‘मां, अब दोनों की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है. वैसे भी लड़के के आ जाने के बाद दोनों बेटियों के प्रति मेरा मोह भी कम हो गया है,’’ मां को नानी से यह कहते जब सुना तो मेरी आंखें भर आईं. मां का खत मिला. फोन पर तो लगभग मैं ने उन से बात ही करना बंद कर दिया था. सो, मेरी सहेली अनुराधा के हाथों उन्होंने खत भिजवाया. खत में वही पुरानी गुजारिश थी, ‘‘गीता, शादी कर लो वरना मैं चैन से मर नहीं पाऊंगी.’’ मैं मन ही मन सोचती कि मां तो हम बहनों के लिए उसी दिन मर चुकी थीं जिस दिन उन्होंने हम दोनों को अकेले छोड़ कर शादी रचा ली थी. अब अचानक उन के दिल में मेरी शादी को ले कर ममता कैसे जाग गई. मेहमान भी आ कर एक बार खबर ले लेता है मगर मां तो जैसे हमें भूल ही गई थीं. साल में एकदो बार ही उन का फोन आता. मैं करती तो भी यही कहती बिलावजह फोन कर के मुझे परेशान मत करो, गीता. अब तुम बड़ी हो गई हो. तुम्हें वहां कोई कमी नहीं है. अब उन्हें कैसे समझाती कि सब से बड़ी कमी तो उन की थी हम बहनों को. क्या कोई मां की जगह ले सकता है?

खत पढ़ कर मैं तिलमिला गई. अचानक मन अतीत के पन्नों में उलझ गया. वैसे शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जब अतीत को याद कर के मेरे आंसू न बहे हों. मगर मां जब कभी शादी का जिक्र करतीं तो अतीत का जख्म नासूर बन कर रिसने लगता. तब मैं 14 साल की थी. वहीं, मुझ से 2 साल छोटी थी मेरी बहन. उसे सभी छोटी कह कर बुलाते थे. मां ने तभी हमारा साथ छोड़ कर दूसरी शादी कर ली थी. पहले जब मैं मां के लिए रोती तो नानी यही कहतीं कि तेरी मां नौकरी के लिए दिल्ली गई है, आ जाएगी. पर मुझे क्या मालूम था कि कैसे मां और नानी ने मुझ से छल किया.

‘क्यों गई हैं?’ मेरा बालमन पूछता, ‘क्या कमी थी यहां? मामा हम सभी लोगों का खयाल रखते हैं.’ तब नानी बड़े प्यार से मुझे समझातीं, ‘बेटा, तेरे पिता कुछ करतेधरते नहीं. तभी तो तेरी मां यहां रहती है. जरा सोच, तेरे मामा भले ही कुछ नहीं कहते हों मगर तेरी मां को यह बात सालती रहती है कि वह हम पर बोझ है, इसीलिए नौकरी कर के इस बोझ को हलका करना चाहती है.’

‘वे कब आएंगी?’

‘बीचबीच में आती रहेगी. रही बात बातचीत करते रहने की, तो उस के लिए फोन है ही. तुम जब चाहो उस से बात कर सकती हो.’ सुन कर मुझे तसल्ली हुई. मैं ने आंसू पोंछे. तभी मां का फोन आया. मैं ने रोते हुए मां से शिकायत की, ‘क्यों हमें छोड़ कर चली गईं. क्या हम साथ नहीं रह सकते?’

मां ने ढांढ़स बंधाया, नानी का वास्ता दिया, ‘तुम लोगों को कोई तकलीफ नहीं होगी.’

मैं ने कहा, ‘छोटी हमेशा तुम्हारे बारे में पूछती रहती है.’

‘उसे किसी तरह संभालो. देखो, सब ठीक हो जाएगा,’ कह कर मां ने फोन काट दिया. मेरे गालों पर आंसुओं की बूंदें ढुलक आईं. बिस्तर पर पड़ कर मैं सुबकने लगी.

पूरा एक महीना हुआ मां को दिल्ली गए. ऐसे में उन को देखने की तीव्र इच्छा हो रही थी. नानी की तरफ से सिवा सांत्वना के कुछ नहीं मिलता. पूछने पर वे यही कहतीं, ‘नईनई नौकरी है, छुट्टी जल्दी नहीं मिलती. जैसे ही मिलेगी, वह तुम सब से मिलने जरूर आएगी,’ मेरे पास सिवा सुबकने के कोई हथियार नहीं था. मेरी देखादेखी छोटी भी रोने लगती. मुझ से उस की रुलाई देखी नहीं जाती थी. उसे अपनी बांहों में भर कर सहलाने का प्रयास करती ताकि उसे मां की कमी न लगे.

मां के जाने के बाद छोटी मेरे ही पास सोती. एक तरह से मैं उस की मां की भूमिका में आ गई थी. अपनी हर छोटीमोटी जरूरतों के लिए वह मेरे पास आती. एक भावनात्मक शून्यता के साथ 2 साल गुजर गए. जब भी फोन करती, मां यही कहतीं बहुत जल्द मैं तुम लोगों से मिलने बनारस आ रही हूं. मगर आती नहीं थीं. हमारा इंतजार महज भ्रम साबित हुआ. आहिस्ताआहिस्ता हम दोनों बहनें बिन मां के रहने के आदी हो गईं. मैं बीए में पहुंच गई कि एक दिन शाम को जब स्कूल से घर लौटी तो देखा मां आई हुई हैं. देख कर मेरी खुशी की सीमा न रही. मां से बिछोह की पीड़ा ने मेरे सब्र का बांध तोड़ डाला और बह निकला मेरे आंखों से आंसुओं का सैलाब जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. नानी ने संभाला.

‘अब तुम कहीं नहीं जाओगी,’ सिसकियों के बीच में मैं बोली. वे चुप रहीं. उन की चुप्पी मुझे खल गई. जहां मेरे आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे वहीं मां का तटस्थ भाव अनेक सवालों को जन्म दे रहा था. क्या यहां आ कर उन्हें अच्छा नहीं लगा? 2 साल बाद एक मां को अपने बच्चों से मिलने की जो तड़प होती है उस का मैं ने मां में अभाव देखा. शायद नानी मेरे मन में उठने वाले भावों को भांप गईं. वे मुझे बड़े प्यार से दूसरे कमरे में यह कहती हुई ले गईं कि तुम्हारी मां लंबी यात्रा कर के आई है, उसे आराम करने की जरूरत है. जो बातें करनी हों, कल कर लेना. ऐसा मैं ने पहली बार सुना. अपनी औलादों को देख कर मांबाप की सारी थकान दूर हो जाती है, यहां तो उलटा हो रहा था. मां ने न हमारा हालचाल पूछा न ही मेरी पढ़ाईलिखाई के बारे में कुछ जानने की कोशिश की.

उन्होंने एक बार यह भी नहीं कहा कि बेटे, मेरी गैरमौजूदगी में तुम लोगों को जो कष्ट हुआ उस के लिए मुझे माफ कर दो. छोटी भी लगभग उपेक्षित सी मां के पास बैठी थी. मां के व्यवहार में आए इस अप्रत्याशित परिवर्तन को ले कर मैं परेशान हो गई. बहरहाल, मैं अपने कमरे में बिस्तर पर लेट गई. वैसे भी मां के बगैर रहने की आदत हो गई थी. लेटेलेटे मन मां के ही इर्दगिर्द घूमता रहा. 2 साल बाद मिले भी तो मांबेटी अलगअलग कमरों में लेटे हुए थे. सिर्फ छोटी जिद कर के मां के पास बैठी रही.

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