अचानक एक छोटे से बच्चे के रोने की आवाज मेरे कानों में पड़ी. मुझे अचरज हुआ. उठ कर नानी के पास आई. ‘नानी, किस का बच्चा रो रहा है?’ नानी कुछ नहीं बोलीं. मानो वे मुझ से कुछ छिपाना चाहती हों. कोई जवाब न पा कर मैं मां के कमरे में आई. देखा, मां एक बच्चे को गोद में ले कर दूध पिला रही थीं. मेरे चेहरे पर शिकन पड़ गई.
मां के करीब आई. ‘मां, यह किस का बच्चा है?’ मां ने भी वही किया जो नानी ने. उन्होंने निगाहें चुराने की कोशिश की मगर जब उन्हें सफलता नहीं मिली तो नानी ने परदाफाश किया, ‘यह तुम्हारा छोटा भाई है. तुम्हें हमेशा शिकायत रहती थी कि तुम्हारे कोई छोटा भाई नहीं है. लो, अब अपनी ख्वाहिश पूरी कर लो,’ नानी ने बच्चे को मां से ले कर मेरे हाथों में दे दिया.
एकबारगी मैं असमंजस की स्थिति में आ गई. बच्चे को गोद में लेती हुई यह पूछने से अपनेआप को न रोक पाई कि मां, यह भाई कहां से आया? मां दुविधा में पड़ गईं. वे भरसक जवाब देने से बचती रहीं. बच्चे को भाई के रूप में पा कर कुछ क्षण के लिए मैं सबकुछ भूल गई. मगर इस का मतलब यह नहीं था कि मेरे मन में सवालों की कड़ी खत्म हो गई. रात में ठीक से नींद नहीं आई. करवटें बदलते कभी मां तो कभी बच्चे पर ध्यान चला जाता. तभी नानी और मां की खुसुरफुसुर मेरे कानों में पड़ी.
‘कैसा चल रहा है? पहले से दुबली हो गई हो,’ नानी पूछ रही थीं.
‘बच्चे के आने के बाद थोड़ी परेशान हूं. ठीक हो जाएगा.’
मां बोलीं, ‘दामादजी खुश हैं?’
‘बहुत खुश हैं. खासतौर से लड़के के आने के बाद.’
‘मैं तो डर रही थी कि 2-2 बेटियों का कलंक कहीं वहां भी तेरा पीछा न करे,’ नानी बोलीं.
‘मां, भयभीत तो मैं भी थी. शुक्र है कि मैं वहां बेटियों के कलंक से बच गई. यहां दोनों कैसी हैं?’
‘ठीक हैं. शुरुआत में थोड़ा परेशान जरूर करती थीं मगर अब नहीं. दोनों को घर के छोटेमोटे कामों में उलझाए रहती हूं ताकि भूली रहें.’
‘मां, अब दोनों की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है. मैं अब शायद ही अपनी नई गृहस्थी से उबर पाऊं. वैसे भी लड़के के आ जाने के बाद दोनों के प्रति मोह भी कम हो गया है.’
‘ऐसा नहीं कहते,’ नानी ने टोका.
‘क्यों न कहूं? बाप नालायक. इन दोनों के बोझ से मुक्त होना क्या आसान होगा?’
‘सब अपनीअपनी नियति का पाते हैं, कुछ सोच कर नानी फिर बोलीं, ‘तुम ने दामादजी से बात की थी.’
‘किस सिलसिले में?’ मां के माथे पर बल पड़ गए.
‘दोनों को अपनी बेटियां बना कर रख लेते तो भरापूरा परिवार हो जाता.’
‘पागल हो गई हो मां. जिस की बेटियां हैं उसे ही फिक्र नहीं तो भला वे क्यों जहमत उठाएं?’ नानी क्षणांश गंभीर हो गईं. वे उबरीं, ‘तुम्हें बेटियों के बारे में भी सोचना चाहिए. तुम्हारा भाई अधिक से अधिक इन को पढ़ालिखा देगा. रही बात शादीब्याह की, उस का क्या होगा?’
‘तब की तब देखी जाएगी.’
दोनों का वार्त्तालाप मेरे कानों में पड़ा. सुन कर मेरी आंखें भर आईं. एक मां के लिए बेटी इतनी बोझ हो गई कि उसे अपनी दूसरी शादी की तो फिक्र है मगर अपनी बेटियों के भविष्य की नहीं. तब मैं ने मन बना लिया था कि आइंदा कभी भी मां को फोन नहीं करूंगी. उन्हें अपने बेटे से मोह है तो मुझे अपनेआप से. मैं अपने पैरों पर खड़ी हो कर दिखला दूंगी कि मैं किसी पर बोझ बनने वाली नहीं. एक हफ्ते रही होंगी मां हमारे साथ. उन का रहना न रहना, हमारे लिए बराबर था. उन का ज्यादातर समय अपने नवजात शिशु के लिए ही था. हम तो जैसे उन के लिए गैर हो गए थे. बहरहाल, एक दिन एक आदमी आया. जिसे मां ने पिता कह कर हम दोनों बहनों से परिचय करवाया. मुझे वह आदमी कुछ जानापहचाना लग रहा था. वह हमारा किस रिश्ते से पिता हो गया. यह मैं ने बाद में जाना. उस के साथ मां चली गईं. एक अनसुलझे सवाल का जवाब दिए बगैर मां एक रहस्यमयी व्यक्तित्व के साथ हमारी नजरों से दूर चली गईं.
इस बार मैं ने अपने आंसुओं को बहा कर जाया नहीं किया क्योंकि कुछकुछ हालात मेरी समझ में आ चुके थे. फिर भी वे हमारी मां थीं, हमें उन की जरूरत थी. जबकि मैं अच्छी तरह समझ चुकी थी कि हमारी मां अब हमारी नहीं रहीं, बल्कि उस बच्चे की मां बन चुकी थीं जो उन की गोद में था. वह जानापहचाना व्यक्ति निश्चय ही मां का पति था. जिस के साथ उन्होंने एक अलग दुनिया बसा ली थी और हमें छोड़ दिया लावारिसों की तरह नानी के घर में पलने के लिए. सोच कर मेरी आंखें आंसुओं से लबरेज हो गईं. छोटी तो चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी. मैं ने समझाया, ‘देख, हमें मां के बगैर जीने की आदत डालनी होगी, मन को कड़ा कर ‘छोटी,’ कह कर मैं ने उसे सीने से लगा लिया.
‘दीदी, मां अब कभी नहीं आएंगी?’ छोटी के कथन पर रुलाई तो मुझे भी फूट रही थी मगर किसी तरह खुद पर नियंत्रण रखा था. मां का जब तक इंतजार रहा तब तक तसल्ली रही. अब तो स्पष्ट हो गया कि वे हमारी नहीं रहीं. शायद ही कभी वे इधर का रुख करें. करेंगी भी तो 2-4 साल में एकाध बार. उन का होना न होना, बराबर था हमारे लिए. पर पता नहीं क्यों, मन मानने के लिए तैयार न था. मेरी सगी मां जिन्होंने हमें 9 महीने गर्भ में रखा, पालापोसा, अचानक इतनी निर्मोही कैसे हो सकती हैं? क्यों उन्होंने हम से विमुख हो दूसरे व्यक्ति का दामन थामा? क्या वह व्यक्ति हम से ज्यादा अहमियत रखता था मां के लिए. खून के रिश्ते क्या इतने कमजोर होते हैं कि कोई भी ऐरागैरा तोड़ दे? कोई मां कैसे अपने अबोध बच्चों को छोड़ कर दूसरी शादी कर लेती है? छोटी रोतेरोते सो गई, वहीं मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी. घूमफिर कर सोच कभी मां तो कभी उस व्यक्ति पर चली जाती जिसे मैं ने कहीं देखा था.
आखिरकार मुझे याद आ ही गया. जब मां एक कौस्मैटिक की दुकान पर काम करती थीं तब मुझे वहां ले गई थीं. तब 13 साल की थी मैं. अंकल ने मुझे बड़े प्यार से मुझ से मेरी ख्वाहिशों के बारे में पूछा. मुझे पिज्जा खिलाया. आइसक्रीम दी. थोड़ी देर बाद मामा आए तब मैं उन के साथ मां को वहीं छोड़ कर घर लौट आई.
आज उम्र के 30वें पायदान पर आ कर सबकुछ ऐसे जेहन में तैरने लगा जैसे कल की बात हो. मां ने उसी व्यक्ति से शादी कर ली. मैं ने उसांस ली. जो भी हो, एक बात आज भी शूल की भांति चुभती है कि क्यों मां ने हम से ज्यादा उस व्यक्ति से शादी को अहमियत दी? क्या हमें पालपोस कर बड़ा करना उन के जीवन का मकसद नहीं हो सकता था? जब शादी कर के बच्चे ही पालने थे तो हम क्या बुरे थे? अगर इतना ही बेगानापन था हम से तो छोड़ देतीं हमें अपने पिता के पास. कामधाम नहीं करते तो क्या हुआ, कम से कम उन्हें अपने खून के रिश्ते का खयाल तो होता? हो सकता था हमें देख कर ही वे कुछ कामधाम करने लगते. अनायास पापा की याद आने लगी. 5 साल की थी, जब मां ने पापा का घर छोड़ा.
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