नानी कहतीं, ‘तेरे पिता गैरजिम्मेदार थे.’ बड़ी हुई तो नानी से पूछा, ‘नानी, मां की शादी हुई तब उन की उम्र मात्र 16 साल की थी और पापा की रही होगी 21 साल. यही न आप ने हम से बताया था. इतनी छोटी उम्र में न मां शादी लायक थीं, न ही पापा घरगृहस्थी संभालने लायक. आप ने तो अपना बोझ हटाया. मगर पापा को तो मौका दिया होता संभालने का. 25 साल के बाद ही आदमी कुछ करने की स्थिति में होता है. मगर आप को तो मां की शादी के साथ उन के कमाने की जल्दी थी. मां को क्या कहें, वे अपरिपक्व थीं, जो विवाह को मजाक समझा और चली आईं आप के साथ रहने. आप ने भी उन का सपोर्ट किया. क्या फायदा हुआ ऐसी शादी करने से जब लड़की मायके में ही आ कर रहने लगे.’
नानी को दंश लगा. ‘जब तू कुछ नहीं जानती तो मत बोला कर,’ वे थोड़ी रोंआसी हो गईं. मुझे अपराधबोध हुआ. भरे गले से कहने लगीं, ‘जब तेरे नाना मरे तब मेरी उम्र थी 35 साल. 3 लड़कियां और 2 लड़के छोड़ कर जब वे गुजरे तब मेरे ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. किसी तरह संभली तो दिनरात यही चिंता खाए जा रही थी कि कैसे 3 लड़कियों की शादी करूंगी?’
‘शादी करना क्या जरूरी था? इस शादी से मिला क्या?’
‘तो क्या घर पर बिठा कर चार लोगों के ताने सुनती.’ ‘भले ही बेटी की जिंदगी बरबाद हो जाए?’
‘मैं तुझ से बहस नहीं करना चाहती. जो उचित था, वह किया. रही बेटी की बात, मैं ऐसे आदमी के पास उसे नहीं छोड़ सकती जो दिनभर बैठ कर मुफ्त की रोटियां तोड़े. छोटीछोटी जरूरतों के लिए उसे सासससुर पर निर्भर रहना पड़ता. क्या वह इतना भी कमाने की स्थिति में नहीं था कि उस के लिए एक लिपस्टिक ला सके.’
‘इतना ही कमाने वाला दामाद चाहिए था तो पहले कामधाम देख कर शादी करतीं?’
‘देखी थी, बाप की किराने की अच्छीखासी दुकान थी.’
‘फिर शिकायत कैसी जब मां सासससुर से अपनी जरूरतों के लिए कहतीं.’
‘मैं तुम से बहस नहीं करना चाहती. पढ़लिख गई हो तो कुछ ज्यादा ही बुद्धि आ गई है तुम में.’
‘नानी, मैं सिर्फ इतना कहना चाहती हूं कि कम उम्र में शादी कर के आप ने घोर अपरिपक्वता का परिचय दिया है. बेटियों को बोझ समझा. इस का दुष्परिणाम है जो हमें अपने मांबाप दोनों से वंचित होना पड़ा,’ कहतेकहते मेरी दोनों आंखों के कोर भीग गए. पता नहीं क्यों मुझे मां का चालढाल भी मर्यादित नहीं लगा. खासतौर से उन के पहनावे और बनावशृंगार को ले कर. तब मेरा बालपन उतना समझने में सक्षम नहीं था. परंतु उस समय की देखीसुनी चीजों का अर्थ अब समझ में आने लगा था.
माना कि मां की उम्र ज्यादा नहीं थी, फिर भी उन्हें इस का तो खयाल होना चाहिए था कि वे 2 बच्चियों की मां हैं और मायके में रह रही हैं. नानी न सही, आसपास के लोग तो जरूर कानाफूसी करते होंगे. ऐसे में उन की और भी जिम्मेदारी बनती थी कि वे मर्यादा में रहें. क्या पता नानी ने शह दी हो कि कोई दूसरा उन की जिंदगी में आए और वे दूसरी शादी कर लें. और हुआ भी वही. मां ने उस व्यक्ति से शादी की जिस के यहां वे नौकरी करती थीं. आज मेरी समझ में आ गया कि नानी ने मां के चालचलन पर कोई एतराज क्यों नहीं जताया. ठीक है, उन्होंने जो समझा, किया. मगर हम से झूठ क्यों बोला कि मां दिल्ली नौकरी करने गई हैं. हमें अंधेरे में क्यों रखा? यह सोच कर मेरा मन दुखी हो गया. पापा एकाध बार हमारे यहां आए मगर मां और नानी ने उन्हें बड़ी निर्लज्जता के साथ घर से निकाल दिया. उस के बाद वे कभी नहीं झांके. हो सकता है उन्होंने भी दूसरी शादी कर ली हो?
आहिस्ताआहिस्ता मैं और छोटी ने बिन मां के रहना सीख लिया. पहले मां का फोन आ भी जाता था मगर धीरेधीरे वह भी आना बंद हो गया. हम ने भी फोन करना बंद कर दिया. मन बना लिया कि मैं और छोटी पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होंगी.
आज हम दोनों बहनें अच्छेअच्छे ओहदों पर हैं. छोटी ने प्रेमविवाह कर लिया. मगर मैं ने नहीं. उम्र के 30वें पायदान पर आ कर भी शादी का खयाल नहीं आया. शादी से वितृष्णा हो गई थी. शादी ही तो की थी मां ने जिस के चलते हमें उन के प्यार से महरूम होना पड़ा. खून से ज्यादा अगर शादी अहमियत रखती है तो मैं ऐसी शादी को ठुकराती हूं. मेरे लिए बेटी के रूप में छोटी थी जिसे मैं ने मां सदृश पाला. आगे भी उसी की खुशी में अपनी खुशी तलाशती रहूंगी. मेरे जीवन का मकसद भी यही था कि छोटी को फलताफूलता देखूं. मां को मेरे आशय की खबर लगी तो पहले फोन किया, जब उस से सफलता नहीं मिली तो मेरी सहेली अनुराधा से खत भिजवा दिया. मैं ने अनुराधा को खूब खरीखोटी सुनाई कि क्यों लिया उन का खत? मैं उन से नफरत करती हूं. आज अचानक जिम्मेदारी का खयाल कैसे आया? हमें बेटी माना होता तो ठीक था. हमें तो लावारिस की तरह नानी के पास रख कर चली गईं गुलछर्रे उड़ाने.
‘‘तुम्हें मां के बारे में ऐसा नहीं कहना चाहिए,’’ अनुराधा ने टोका.
मुझे किंचित अफसोस हुआ, ‘‘अनुराधा, मैं किसी के चरित्र पर उंगली नहीं उठा रही हूं. मेरे कहने का आशय यही है कि उन्होंने जो किया, क्या वह ठीक था?’’
अनुराधा ने कोई जवाब नहीं दिया. क्षणांश चुप्पी के बाद वह बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि तुम एक बार अपनी मां से मिल लो.’’
‘‘मैं उन की शक्ल भी देखना नहीं चाहती.’’
‘‘तुम्हारी प्रतिक्रिया वाजिब है. तुम्हें उन के नहीं, अपने तरीके से सोचना होगा. उन की दूसरी शादी उन की तब की परिस्थिति और सोच पर निर्भर थी. जबकि तुम्हारी शादी आज की परिस्थिति पर. वे ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं थीं, तुम तो हो और अच्छी तरह जानती हो कि शादी जीवन को एक लय देती है. जैसे बिना साज के आवाज अधूरी है वैसे ही बिन शादी के जीवन अधूरा. जीवनसाथी का साथ अकेलेपन को दूर करता है. फिर सारे गिलेशिकवे दूर हो जाएंगे. न मन में नफरत के भाव आएंगे और न ही व्यवहार में चिड़चिड़ापन.’’ मेरे मन पर अनुराधा की बातों का प्रभाव पड़ा. एक हद तक वह ठीक थी. औफिस से घर जाती तो मेरा अतीत मेरा पीछा नहीं छोड़ता. कब तक मां को दोष देती रहूंगी? उन्हें कोसने से मुझे अब क्या मिलने वाला है? इस से उबरने का यही तरीका था कि मैं शादी कर के एक नए नजरिए से दुनिया को देखूं.
काफी सोच कर मैं ने अपनी पसंद के एक सहकर्मी से शादी कर ली. मगर मां को नहीं बुलाया. यह मेरी चिढ़ थी या प्रतिकार. इसे जो भी कहा जाए. वे निष्ठुर हो सकती हैं तो मैं क्यों नहीं. हां, यह खबर मैं ने अनुराधा से उन तक भिजवा दी. एक बात मुझे जीवनभर सालती रहेगी कि क्या कोई मां खुदगर्ज हो सकती है.