40-45 उम्र का अच्छाखासा आदमी लग रहा था. पहले ही दिन पूरा इतिहास जान लिया मैं ने उस का… भारत में कहां का रहने वाला है, परिवार में 2 बड़े बच्चे हैं और कौनकौन है, वगैरहवगैरह.
बेटा हतप्रभ, ‘‘ममा, इतने वक्त में हमें नहीं पता यह कहां का है और आप ने इतनी जल्दी इस की 7 पुश्तें खंगाल डालीं.’’
‘‘ममा लेखिका जो हैं,’’ समर ने चुटकी ली.
मैं दोनों की चुटकियों को अनसुना कर पूरण को खाना बनाते देख रही थी. ‘‘ऐसे क्या बना रहे हो तुम. ऐसे कोई सब्जी बनती है?’’ कुकिंग का बेहद शौक है मु झे. जैसातैसा नहीं खा सकती. इसलिए कामवालों का बनाया खाना पसंद नहीं आता. भारत में आशा के अलावा आउट हाउस में एक परिवार रहता है. इसलिए आशा और सविता के रहतेकाम करने की जरूरत भले ही न पड़े, पर खाना बनाना मेरा प्रिय शगल था. वह मैं किसी पर नहीं छोड़ती हूं.
‘‘तुम ने गैस बंद क्यों कर दी? अभी तो सब्जी भुनी भी नहीं है, पूरण. ऐसा ही खाना खिलाते हो बच्चों को?’’
‘‘अरे ममा, चलो,’’ बेटा मु झे हंस कर खींचते हुए बोला, ‘‘आप को पूरण का बनाया खाना पसंद नहीं आएगा तो बाहर से और्डर कर दूंगा, यहां भारतीय खाना जितना अच्छा और फ्रैश मिलता है, उतना तो भारत में भी नहीं मिलता.’’
मजबूरी में मैं बेटे के साथ आ गई. लेकिन दिल कर रहा था, अभी के अभी इसे पूरी कुकिंग सिखा दूं कि ऐसा खाना खाते हैं मेरे बच्चे.
लेकिन पूरण का बनाया खाना 4-5 दिनों तक खाने की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि शुक्रवार और शनिवार 2 दिन छुट्टी के थे और उस के बाद भी बच्चों ने कुछ दिनों की छुट्टी ले ली थी. घर से एक बार निकले हम चारों, रात एकडेढ़ बजे से पहले घर नहीं आ पाते थे.
जैसे उम्र का और रिश्ते का अंतर ही नहीं रह गया था चारों में. कितनी शिकायतें हैं आज के समय में इस नई पीढ़ी से सब को. पर इस कूल जनरेशन के रंग में रंग जाओ, तो लगता है जैसे अपनी उम्र से कई साल पीछे लौट गए. कुछ भी याद नहीं रह रहा था. उन्हीं के जैसी बातें, मस्ती, कहकहे और ताकत भी… पता नहीं कहां से आ गई थी. न बच्चे सोच रहे थे कि वे हमें सुबह 11 बजे से रात 11 बजे तक चला रहे हैं और न हम सोच रहे थे. न समय का ध्यान था और न डेट याद रह रही थी.
लग रहा था जैसे चारों दोस्त होस्टल में रह रहे हैं. और सब से बढ़ कर तो घर में मुश्किल से 3-4 साल पहले आई हमारी प्यारी बहू इशिता, उस के साथ महसूस ही नहीं हो रहा था कि वह कभी हम से जुदा भी थी. घूमने जाते तो वह कभी एक बड़ा कप आइसक्रीम ला कर सब को बारीबारी से खिलाती रहती तो कभी कोल्डडिं्रक ला कर सब को पिलाती. वह जूठे तक का परहेज न करती हमारे साथ. उसे देख कर लगता जैसे यहीं जन्म लिया हो उस ने. उस के आचरण से उस के संस्कार भी साफ दिखाई देते और महसूस करा देते कि जब मातापिता तबीयत से बेटी का पालनपोषण करते हैं तो बेटियां भी ऐसे ही प्यार से 2 घरों को जोड़ देती हैं.
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छुट्टियां खत्म हो गई थीं और अब कल से बच्चों को औफिस जाना था, इसलिए आज जल्दी वापस आ गए थे. डिनर और्डर कर रहा था रिषभ, मैं बीच में बोल पड़ी, ‘‘चपाती और्डर करने की जरूरत नहीं, रिषभ, मैं बना लूंगी.’’
‘‘क्यों बना लेंगी, ममा. कोई जरूरत नहीं बनाने की,’’ इशिता बोली.
‘‘इसलिए, क्योंकि चपाती तो घरवाली ही अच्छी होती है,’’ मैं किचन की तरफ जाते हुए बोली और बच्चों की बात अनसुना कर चपाती बनाने लगी. डिनर आ गया था. इशिता ने टेबल पर लगा दिया. बच्चे टेबल पर बैठ गए थे और समर वौशरूम में. मैं ने चपाती बना कर बच्चों को दी और फिर गरम चपाती समर की प्लेट में भी रख दी. समर इतनी देर में भी बाहर नहीं आए. मैं तबतक दूसरी गरम चपाती बना कर ले आई थी. समर की प्लेट की चपाती अपनी प्लेट में रख कर मैं ने दूसरी गरम चपाती समर की प्लेट में डाल दी. तब तक समर भी आ गए.
‘‘ये क्या, ममा?’’ रिषभ आश्चर्य से मेरे क्रियाकलाप देखते हुए बोला, ‘‘ऐसा क्यों किया आप ने?’’
‘‘वह वाली थोड़ी ठंडी हो गई थी न,’’ मैं व्यस्त भाव से बोली. रिषभ आश्चर्यचकित हो बोला, ‘‘ठंडी हो गई थी, सिर्फ 2 मिनट में? पापा, वैसे काफी बिगड़ी आदतें हैं आप की.’’ और फिर अर्थपूर्ण मुसकराहट से वह इशिता को देख कर हंसने लगा.
समर खिसिया कर खाना खाने लगे, ‘‘असल में घर में सविता गरमगरम चपाती बना कर लाती है न, तो आदत पड़ गई.’’
पर मेरा मन बल्लियां उछलने को कर रहा था. जो बात वर्षों नहीं बोल पाई थी उस बात को रिषभ ने क्या मजे से कह दिया था. आज के पति कितने कूल हैं. उन्हें फर्क नहीं पड़ता. वे सबकुछ प्लेट में किचन से एकसाथ डाल कर खा लेते हैं. प्लेट न मिलने पर पेपर प्लेट में भी खा लेते हैं. प्रौपर डिनर, लंच न मिले तो बर्गर, मैगी या औमलेटब्रैड से भी पेट भर लेते हैं. ‘सब ठीक है’ के अंदाज में मजे से जीते हैं. खूब कमाते हैं और खूब खर्च करते हैं. पतिपत्नी दोस्तों जैसे रहते हैं. मिलजुल कर कोई भी काम कर लेते हैं.
एक हमारा जमाना था कि मायके तक जाना मुश्किल था. नौकरी करना तो और भी मुश्किल था. ‘खाना कौन बनाएगा?’ जैसी एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या थी पतियों की, जिस से पार पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन था बीवियों का. नाश्ते, लंच, डिनर में बाकायदा पूरी टेबल सजती थी. पत्नी का टैलेंट गया बक्से में और आधी जिंदगी किचन में. मैं मन ही मन हंसहंस कर लोटपोट हुई जा रही थी.
बच्चों को बड़ों से कुछ सीखना चाहिए. पर मेरी सम झ से तो आज के समय में पापाओं को अपने बेटों से सही तरीके से पति बनना सीखना चाहिए. समर बहुत गंभीरता से खाना खा रहे थे और इशिता व रिषभ आंखोंआंखों ही में चुहलबाजी में मस्त थे. मैं मन ही मन इस प्यारी जोड़ी का प्यार देख आनंद से सराबोर हो रही थी.
दूसरे दिन दोनों बच्चे औफिस चले गए. जब इशिता जाने लगी तो मैं उसे लिफ्ट तक जाते देखती रही. बेटी नहीं है मेरी और मैं घर से किसी लड़की को पहली बार यों चुस्तदुरुस्त, स्मार्ट ड्रैस में औफिस जाते देख हुलसिक हो रही थी. इन बच्चियों का साथ दो, सपोर्ट दो, उड़ने दो इन्हें खुले गगन में. इन के पंख मत नोचो. बहुतकुछ कर सकती हैं ये. आज परिवार भी तो कितने छोटे हो गए हैं. किचन में 4 रोटियां बनाना ही तो जीवन में सबकुछ नहीं है.
सही कहता है रिषभ, ‘ममा, आज के समय में अगर बीवी घर पर रहेगी तो घर थोड़ा और ज्यादा सुंदर व व्यवस्थित हो जाएगा. लेकिन यह सब एक लड़की के सपने टूटने की कीमत पर ही होगा न,’ कितनी सम झ है उसे. कितनी बड़ी बात कह गया. दोनों मिल कर फटाफट कई काम कर डालते हैं, एकदूसरे की मुंडी से मुंडी मिला कर कई प्रोग्राम बना डालते हैं और ढेर सारी शौपिंग करने में भी हाथ नहीं हिचकिचाते उन के.
ठीक तो है, पतिपत्नी में आपसी सम झ होनी चाहिए. चाहे फिर पत्नी बाहर काम करे या घर में रहे. सोचती हुई मैं किचन की अलमारियां खोलखोल कर देखने लगी. ‘आज सारी की सारी ठीक कर डालूंगी,’ मैं बड़बड़ाई.
‘‘क्या?’’ समर पास से गुजरे, ‘‘जो ठीक करना है, बाद में करना. पहले कुछ भूख शांत कर दो.’’
‘‘क्या कहा?’’ मैं ने त्योरियां चढ़ा लीं.
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‘‘नहींनहीं, पेट की भई. तुम तो हर समय गलत ही सम झ जाती हो.’’ मेरी चढ़ी त्योरियां देख, समर भाग खड़े हुए.
लंच से निबट कर मैं अपने अभियान में जुट गई. एकएक कर सारी अलमारियां व्यवस्थित कर डालीं. फालतू सामान बाहर कर दिया. इन्हीं कामों में शाम हो गई. तब तक रिषभ औफिस से आ गया. मैं किचन में फैले समान के अंबार के बीच बैठी थी.
‘‘यह क्या, ममा, बहुत शौक है आप को काम करने का. यहां भी शुरू हो गईं.’’
‘‘नहीं, देख रही थी कुछ सामान डबल है. कुछ 3-4 डब्बों में रखा है पीछे. शायद, तुम्हें पता नहीं है, वही सब ठीक किया. कुछ खराब भी हो गया, इसलिए बाहर निकाल दिया. अब कुछ खाएगा तू?’’
‘‘नहीं, वह सब मैं खुद कर लूंगा. आप और पापा के लिए भी कुछ बना देता हूं,’’ कह कर रिषभ ने फ्रीजर से कुछ स्नैक्स निकाल कर ओवन में गरम कर के, उन में अपनी कुछ कलाकारी दिखा कर, प्लेट में सजा कर टेबल पर रख दिया. तब तक सबकुछ समेट कर मैं भी आ गई.
तभी घंटी बज गई. इशिता आ गई थी. मैं ने दरवाजा खोला और इशिता को दोनों बांहों में समेट लिया. ‘‘आ गई मेरी गुडि़या.’’ समर ने भी लपेट लिया उसे. इशिता झूठीमूठी गुमानभरी नजरें रिषभ पर डालती हुई बोली, ‘‘आप को भी किया था ऐसा प्यार? मु झे देखो, कितना प्यार करते हैं ममापापा.’’
‘‘इधर आओ,’’ रिषभ भी हंसता हुआ उसे खींच कर ले गया और अलमारियां दिखाता हुआ बोला, ‘‘जब मैं आया तो ममा यह सब कर रही थीं. मु झे प्यार कहां से करतीं.’’
दोनों ऐसी चुहल कर रहे थे कि हृदय हर्षित हो गया. इशिता बैग एक तरफ रख कर कोल्ड कौफी बना लाई और हम चारों बैठ कर खानेपीने लगे. मैं सोच रही थी कि कितने मजे से लेते हैं ये युवा जिंदगी को. औफिस से आए हैं दोनों, मैं कुछ बना कर देती, उलटा उन्हीं का बनाया हुआ खा रहे हैं. जब हम इस उम्र में थे तो पति लोग औफिस से ऐसे आते थे जैसे पहाड़ तोड़ कर आए हों. ये दोनों ऐसे आए हैं जैसे बैडमिंटन खेल कर आए हों.
हालांकि पता है मुझे कि दोनों पर नौकरियों का तनाव हावी रहता है. पर आजकल के युवा इन तनावों को भूल कर मनोरंजन करना भी खूब जानते हैं. रिश्तेदारों व पड़ोसियों के तानों में उल झ कर, उन की परवाह कर और तनाव नहीं पालना चाहता आज का युवा वर्ग. बस, शायद इसीलिए बदनाम रहता है. जो इन के रंग में रंग गया वह जिंदगी का लुत्फ उठा लेता है. वरना, रुकने का नाम तो जिंदगी नहीं.