Writer- कुलदीप कौर बांगा ‘गोगी’

ट्रिन… ट्रिन… अलार्म की आवाज के साथ ही निशा की आंख खुल गई. यह कोई आज की बात नहीं, रोज ही तो उसे इस आवाज के साथ उठना पड़ता है. फिर यह तो उठने के लिए बहाना मात्र है. रातभर में न जाने कितनी बार वह बत्ती जला कर समय देखती है.

रात्रि की सुखद नीरवता एवं शांति को भंग करते प्रात:कालीन वेला में इस का बजना आज उसे कुछ ज्यादा ही अखर गया. उस ने अलार्म का बटन दबा कर उसे शांत कर दिया.

निशा रोज ही उठ कर मशीन की तरह घर के कामों में लग जाती है, पर न जाने क्यों आज उस  का मन कर रहा है कि वह पड़ी रहे. ‘ओह, सिर कितना भारी हो रहा है,’ सोचते हुए उस ने रजाई को कस कर और अपने इर्दगिर्द लपेट लिया. ‘आज शायद ठंड कुछ ज्यादा ही है,’ उस ने सोचा.

‘आखिर यों कब तक चलेगा,’ वह सोचने लगी. अब और खींच पाना उस के बस का नहीं है पर क्या वह नौकरी छोड़ दे? तब घर की गाड़ी कैसे चलेगी?

कैसी विडंबना है. जिस नौकरी को पाने के लिए वह रोरो कर सिर फोड़ लेती थी, जिसे पाने के लिए उस ने जमीनआसमान एक कर दिया था आज वही नौकरी कर पाना उस के बस का नहीं रहा है.

निशा ने एक ठंडी आह भरी और न चाहते हुए भी वह उठी और स्नानघर में घुस गई. आज उस का मन बरबस ही बचपन की दहलीज पर जा पहुंचा. मां उसे जगाजगा कर थक जाती थी, तब कहीं बड़ी मुश्किल से वह उठती थी. तैयार होती नाश्ता करती और स्कूल चली जाती. घर वापस आने पर किसी न किसी सहेली के यहां का कार्यक्रम बन जाता था.

सर्दियों की दोपहरी में टांगें फैला कर 5-6 सखियां घंटों बैठी रहतीं. रेवड़ी, मूंगफली से भरी ट्रे कब खत्म हो जाती और चाय के कितने प्याले पीए जाते हंसीठिठोली के बीच पता ही न चलता. फिर कालेज में आने पर मुकेश की गजलें, गीत सुन कर मन जाने कहां भटक जाता और हाथ की सलाइयां रुक जातीं.

‘‘कहां खो गई निशा?’’ किरण चुटकी लेती और इस के साथ सब सखियों का सम्मिलित ठहाका गूंज उठता. पढ़ाई के बाद उस ने नौकरी शुरू कर ली थी और उसी की वजह से अमित से मिलना हुआ, प्रेम हुआ, फिर विवाह हो गया. अब 2 गुना काम करना पड़ रहा था.

कितना मन करता है उन आलमभरी दोपहरियों की तरह पड़े रहने का. धूप सेंके तो मानो बरसों हो गए हैं. अमित कम से कम रविवार को तो धूप सेंक लेते हैं, उसे तो उस दिन भी यह नसीब नहीं.

‘अरे, अमित को तो अभी तक जगाया ही नहीं, पारुल और स्मिता को भी स्कूल के लिए देर हो जाएगी,’ निशा ने सोचा और फिर तेजी से आंच पर कुकर चढ़ा कर अमित को जगाने चली गई.

अमित को जगा कर जैसे ही निशा पारुल को जगाने लगी वह

चौंक पड़ी, ‘‘अरे, इसे तो बुखार लग

रहा है.’’

‘‘क्या?’’ अमित भी घबरा सा गया. उस ने पारुल को छूआ और आहिस्ता से बोला, ‘‘आज तो तुम छुट्टी कर लो निशु.’’

‘‘छुट्टी कैसे करूं रोजरोज? अभी उस दिन जब छूट्टी ली थी तो पता है बौस ने क्या कहा था?’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि महिलाओं को शादी और बच्चों के बाद नौकरी देने का मतलब है रोज की सिरदर्दी. आज यह काम तो कल वह काम. रहता हैं तो नौकरी करती ही क्यों हो.’’

उसे अचानक याद आए वे दिन जब उस की नौकरी लगी ही थी. तब तो वह छुट्टी ही नहीं लेती थी. उसे जरूरत ही नहीं पड़ती थी इस की. आराम से तैयार होना. रोज एक से एक बढि़या सूट या साड़ी पहनना और 4 इंच की हील वाले सैंडल पहन कर खटखट करते हुए निकल जाना. अब तो शादी और बच्चों के बाद किसी तरह उलटीसीधी साड़ी लपेटी और कभीकभी तो बस निकल जाने के डर से चप्पल बदलने का भी ध्यान नहीं रहता.

‘‘चलो, आज मैं छुट्टी ले लेता हूं. पारू

को डाक्टर के पास तो ले जाना ही पड़ेगा?’’ अमित ने कहा तो निशा थोड़ी सहज हो कर रसोई में चली गई. चाय के लिए पानी चढ़ाने लगी तो देखा गैस खत्म हो चुकी थी. वह रोंआसी सी हो गई. एक तो महरी सप्ताहभर के लिए बाहर गई हुई है, ऊपर से गैस खत्म- अगर उसे दफ्तर न जाना होता तो वह इत्मीनान से सारा काम कर लेती, पर अब?

8 बज चुके हैं और उसे सवा 9 बजे वाली बस पकड़नी है. क्यों ?ां?ाट मोल लिया, उस ने

नौकरी के बाद शादी करने का? कालेज के दिनों में कितनी छुट्टियां होती थीं. परीक्षाएं खत्म होने पर तो बस मजा ही आ जाता था. पढ़ाई की चिंता भी खत्म. गरमी की लंबी दोपहरियों में अपने कमरे के सारे परदे गिरा कर ठाट से ट्रांजिस्टर सुनती थी. एसी की ठंडी हवा कभी कोई पेंटिंग बनाती तो कभी खर्राटे लेते हुए शाम तक पड़ी रहती. शाम होते ही किरण, मधु, शशि सब पहुंच जाती थीं. फिर उन की सरपट भागती स्कूटियां होतीं और वे कभी फिल्म तो कभी किसी मौल में फूड कोर्ट में लंच.

‘‘निशा, तु?ो बांधने का

कोई खूंटा ढूंढ़ना ही पड़ेगा, यह नौकरी पूरा खूंटा नहीं है,’’ पड़ोस वाली रीता भाभी अकसर उसे

छेड़ा करतीं.

‘‘देखो भाभी, मैं तुम्हारी तरह खूंटे से यों ही बंधने की नहीं, नौकरी के साथ शादी करूंगी तो भी वह खूंटा नहीं देगी. आजादी कायम रहे. जो घरेलू ?ां?ाट मिलबांट कर पूरे हो जाएंगे अपने बस के नहीं,’’ और किसी नन्हे बच्चे की तरह भाभी को चिढ़ा कर भाग जाती थी वह.

‘‘क्या बात है निशा, चाय नहीं बनी अभी? भई, स्मित को स्कूल छोड़ने भी जाना है, उसे भी दूध दे दो,’’ कहतेकहते अमित रसोई में आ गए. इलैक्ट्रिक चूल्हे पर खाना धीमे पकता था. निशा के आंसू टपटप गिर रहे थे.

‘‘अरे, क्या गैस खत्म हो गई? तुम तो रो रही हो? निशा, तुम्हीं तो कहा करती हो, जहां संघर्ष खत्म हो जाता है वहां जिंदगी ठहर जाती है. पगली चलो उठो, मैं बरतन कर देता हूं,’’ अमित मुसकराते हुए बोले, पर उन की आवाज में खीज निशा से छिपी न रह सकी.

बच्चों की बीमारी, मेड की छुट्टियां, कभी अपनी तबीयत खराब तो कभी मेहमानों का आना यह  तो गृहस्थी में हमेशा ही चलता रहता है पर जाने क्यों कई दिनों से निशा बड़ी अनमनी सी हो गई है. शायद रोज ही इस भागदौड़ से वह अब थक सी गई है. रोज 5 बजे उठना, घर भर की सफाई करना, बच्चों को दूध, नाश्ता करा कर और लंच दे कर स्कूल भेजना. फिर अपना तथा अमित का नाश्ता व साथ ले जाने के लिए दोपहर का खाना तैयार करना, 9 बजने का पता ही नहीं चलता था और जब कभी महरी न आए तो बरतनों का ढेर भी उस के जिम्मे था. वह अकसर भाग कर ही बस पकड़ पाती थी. देर होने पर बौस की खा जाने वाली निगाहें, फाइलों का ढेर और दोपहरी में सुबह का बना ठंडा खाना. घर लौटतेलौटते 6 बज जाते. थकान से टूटता बदन और घिसटते कदम. दिनभर अकेले रहे बच्चों पर उसे डेर सा प्यार उमड़ आता और वह उन्हें प्यार करतेकरते खुद रो पड़ती.

एक रविवार आता तो अनेक ?ां?ाट रहते. पड़ोस में किसी के बच्चा हुआ है, बधाई देने जाना है. कोई रिश्तेदार अस्पताल में दाखिल है, उसे देखने जाना है. कहीं से शादी का कार्ड आया है, जाना तो पड़ेगा ही. किसकिस को अपनी परेशानी सुनाई जाए और फिर कपड़ों का ढेर तो रविवार के लिए निश्चित है ही. किसी का बटन टूटा है, तो किसी कमीज की सिलाई उधड़ी है. कभी दालों को धूप दिखानी है तो कभी अचार खराब होने के आसार नजर आ रहे हैं.

‘‘आप जाइए, दफ्तर,’’ निशा ने नाश्ते की प्लेट अमित को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘मैं ही ले लूंगी छुट्टी, आज. मेरा सिर भी आज भारीभारी सा हो रहा है. और हां, आज खाना भी कैंटीन में ही खा लेना,’’ कहतेकहते वह कमरे में जा कर पलंग पर पड़ गई.

मन कर रहा था कि  2 घंटे चुपचाप पड़ी रहे तथा कुछ न सोचे पर आज वह स्वयं को बड़ा अशांत अनुभव कर रही थी. उसे शादी से पहले डायरी में लिखे वे शब्द याद आ रहे थे, हम

कोई भी कार्य उत्साह से शुरू करते हैं पर अंत भी उसी उत्साह से होगा या नहीं, कोई नहीं जानता. उस के अनुभव ने उसे आज सही साबित किया है. हो सकता है, आने वाला कल उसे गलत साबित कर दे पर आज यह एकदम सही है. अब डायरियां भी कहां रह गईं. मोबाइलों पर घिसेपिटे मैसेज आते. इस देवता को पूज लो उस देवी की मन्नत मान लो.

यही तो हुआ है उस के साथ. जब वह एमए कर चुकी थी तो नौकरी के लिए उत्सुक थी. चाहती थी एक क्षण भी न लगे और उसे नौकरी मिल जाए पर 2-3 साक्षात्कार दे कर ही वह नौकरी पा गई.

शादी के बाद वह सोचती थी कि 2 वेतनों से उस के दुखों का अंत हो जाएगा पर अब अकसर निशा सोचती, वह उस के दुखों का अंत नहीं बल्कि शुरुआत थी. कितना घृणित होता है पुरुषों का साथ?

अनिल को ही देखो. जब भी कोई फाइल लेने आएगा तो सिगरेट का धुआं जानबू?ा कर मुंह पर ही छोड़ेगा और रमेश तो जानबू?ा कर किसी मोबाइल के मैसेज के शीर्षक को भी इतनी जोर से पढ़ेगा कि वह सुन ले. अभी कल भी तो कुछ पढ़ रहा था. हां, याद आया, ‘‘युवतियों से छेड़छाड़ के लिए युवतियां दोषी हैं?’’

‘‘अरे वाह, क्या सही बात लिखी है लेखक ने,’’ कहते हुए कितनी भद्दी हंसी हंसा था वह.

उस के बदन पर निगाहें टिका कर सुरेश कितनी ही बार दिनेश से कह चुका है,

‘‘यार, कुछ औरतें तो 2 बच्चों की मां हो कर भी लड़की सी लगती हैं. पता नहीं क्या खाती हैं.’’

हुंह क्या खाक कंधा मिलाएं इन पुरुषों से. बड़ी इच्छा होती है अब तो कोई कह दे, निशू, नौकरी छोड़ दो. पर जब सब मना करते थे तो वह रोती थी, अब वह नहीं चाहती तो कोई मना नहीं करता. काश, अमित एक बार आग्रह कर दे कि निशू नौकरी छोड़ दो, अब तुम्हारी हालत मु?ा से देखी नहीं जाती.

हुंह, उसे अपने घर की हालत का पता नहीं. अमित के 25 हजार रुपए से क्या होता है. इन दोनों के 45 हजार रुपए से तो मुश्किल से गुजारा होता है. मकान का किराया, दूध का बिल, फल, सब्जी, कपड़े, मेहमान, बच्चों की प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई, बीमारी आखिर किसकिस में कमी करेगी वह. देखा जाए तो कितना अच्छा लगता है यह सब, कितना सुकून मिलता है जब वह संघर्ष से अर्जित आय से घर चलाती है.

हर महीने कुछ न कुछ बचा कर जब वह कोई वस्तु खरीदती है तो इतनी खुशी मिलती है मानो सबकुछ मिल गया हो. ‘अगले महीने यह खरीदूंगी,’ की कल्पना ही कितनी सुखद होती है. बचत कर के कुछ न कुछ खरीदने का मजा भी कुछ और ही है. उसे अपने घर की हर वस्तु से संतोष की ?ालक और मेहनत की खुशबू आती है और फिर घर तो चलाना ही है. क्यों न खुशीखुशी से यह सब किया जाए.

हां, घर तो चलाना ही है. सहसा उसे याद आ जाता है कि आज मेड नहीं आएगी और

रसोई में रात के जूठे बरतनों का ढेर लगा है जबकि आधे तो अमित धो गया था. वह तेजी से उठ जाती है और मशीन की तरह घूमने लगती है. वह सोचती है कि मशीन बन जाना ही उस की नियति है.

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