लेखक- कृष्णा गर्ग
बारबार मुझे अपनेआप पर ही क्रोध आ रहा है कि क्यों गई थी मैं वहां. यह कोई एक बार की तो बात है नहीं, हर बार यही होता है. पर हर बार चली जाती हूं. आखिर मायके का मोह जो होता है, पर इस बार जैसा मोहभंग हुआ है, वह मुझे कुछ निर्णय लेने के लिए जरूर मजबूर करेगा.
मैं उठ कर बैठ जाती हूं. थर्मस से पानी निकाल कर पीती हूं.
‘‘कौन सा स्टेशन है?’’ मैं सामने बैठी महिला से पूछती हूं.
‘‘बरेली है शायद. कहां जा रही हैं आप?’’
‘‘दिल्ली,’’ मैं सपाट सा उत्तर देती हूं.
‘‘किस के घर जा रही हैं?’’ फिर प्रश्न दगा.
‘‘अपने घर.’’
एक पल की खामोशी के बाद वह महिला पुन: पूछती है, ‘‘कानपुर में कौन रहता है आप का?’’
‘‘मायका है,’’ मैं संक्षिप्त सा उत्तर देती हूं.
‘‘कोई काम था क्या?’’
‘‘हां, शादी थी भाई की?’’ कह कर मैं मुंह फेर लेती हूं.
‘‘तब तो बहुत मजे रहे होंगे,’’ वह बातों का सिलसिला पुन: जोड़ती है.
मेरा मन आगे बातें करने का बिलकुल नहीं था. बहुत सिरदर्द हो रहा था.
‘‘आप के पास कोई दर्द की गोली है? सिरदर्द हो रहा है,’’ मैं उस से पूछती हूं.
‘‘नहीं, बाम है. लीजिएगा?’’
‘‘हूं. दीजिए.’’
‘‘शादीविवाह में अनावश्यक शोरगुल से सिरदर्द हो ही जाता है. मैं पिछले साल बहन की शादी में गई थी. सिर तो सिर, मेरा तो पेट भी खराब हो गया था,’’ वह अपने थैले में से बाम निकाल कर देती है.
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मैं उसे धन्यवाद दे बाम लगा कर चुपचाप सो जाती हूं.
उन बातों को याद कर के मेरा सिर फिर से दर्द करने लगता है. भुलाना चाह कर भी नहीं भूल पाती. बारबार वही दृश्य आंखों के सामने तैरने लगते हैं.