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लेखिका- शशि जैन

रानो घर में दौड़ती हुई घुसी. बस्ता एक तरफ पटक कर वह सरला से लिपट गई. ‘‘दादी बूआ, दादी बूआ, आज हमें मम्मी मिली थीं. हमें मम्मी मिली थीं, दादी बूआ.’’

रानो बड़े उत्तेजित स्वर में बताती जा रही थी कि मम्मी ने उसे क्याक्या खिलाया, क्याक्या कहा.

सरला उस की बातें सुनती रही, उस के सिर और शरीर को सहलाती रही. न रानो के स्वर की उत्तेजना कम हुई थी और न ही सरला के शरीर पर उस के नन्हे हाथों की पकड़ ढीली पड़ी थी. वह अपनी समस्त शक्ति से दादी बूआ के शरीर से चिपटी रही जैसे वही एकमात्र उस का सहारा थी. कुछ ही देर में रानो की उत्तेजना आंसू बन कर टपकने लगी.

‘‘मम्मी घर क्यों नहीं आतीं, दादी बूआ? वे दूसरे घर में क्यों रहती हैं? सब की मम्मी घर में रहती हैं, मेरी मम्मी क्यों नहीं रहतीं? मैं भी यहां नहीं रहूंगी, मैं भी मम्मी के पास जाऊंगी, दादी बूआ.’’

रानो का रोना बढ़ता ही जा रहा था. सरला की समझ में नहीं आ रहा था कि वह उसे कैसे चुप कराए. वह उसे चिपटाए हुए उस का शरीर सहलाती रही. रानो की व्यथा उस की स्वयं की व्यथा बनती जा रही थी. उस की आंखें रहरह कर भरी आ रही थीं. रानो की मम्मी घर पर क्यों नहीं रहतीं, यह क्या वह स्वयं ही समझ सकी थी?

जब वह बूढ़ी होने पर यह बात नहीं जान पाई थी कि रानो की मम्मी उस के साथ क्यों नहीं रहती तो बेचारी रानो ही कैसे समझ सकती थी. वह और रानो तो अल्पबुद्धि थे, यह सब नहीं समझ सकते थे, परंतु प्रदीप तो अपने को बड़ा बुद्धिमान समझता था. क्या उस के पास ही इस बात का कोई उत्तर था और नंदा ही क्या इस का उत्तर जानती थी? वे दोनों समझते हैं कि वे जानते हैं, पर शायद वे भी नहीं जानते कि वे दोनों मिल कर क्यों नहीं रह सके.

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वह रानो को कस कर छाती में दबाए रही, जैसे इसी से वह उसे दुनिया के सारे दुखों से बचा लेगी. उस के हाथों के नीचे नन्हा सा शरीर सुबकता हुआ हिचकोले ले रहा था. वह मन ही मन अपना सारा स्नेह और ममता रानो पर उड़ेल रही थी. धीरेधीरे रानो शांत होने लगी और कुछ ही देर में वह बचपन की शांत गहरी नींद में खो गई. उस का आंसुओं की लकीरों से भरा मासूम चेहरा वेदना की साकार मूर्ति लग रहा था.

जिस नन्ही सी कोमल कली को मां की छाया में पलना चाहिए था, उसे मांविहीना कर के कड़ी धूप में झुलसने को छोड़ दिया गया था.

सरला किचन की टेबल पर सब्जी काटने लगी. मन बहुत सी उलझी हुई गुत्थियों में उलझने लगा.

सत्य क्या है, कौन जान सकता है? वह जीवन में बहुत सी कमियों को झेलती रही थी. उस ने विवाह नहीं किया था. एक छोटी नौकरी के चक्कर में कितने ही लड़कों को न कर दिया था. बाद में मातापिता की मृत्यु के बाद वह इन अभावों को सहती हुई अकेली जीवन व्यतीत करती रही थी. परंतु नंदा को तो सबकुछ मिला था – एक स्वस्थ, सुंदर पति तथा फूल सी प्यारी बिटिया. उस ने किस तरह, कैसे उन्हें हाथ से निकल जाने दिया, क्या उस के लिए पति तथा पुत्री का कोई महत्त्व नहीं था? कुछ तो होगा बहुत ही बड़ा, बहुत ही महत्त्वपूर्ण, जो इन अभावों की पूर्ति कर सका होगा.

वह तो अपने पतिविहीन तथा संतानहीन जीवन को एक यातना समझ कर जी रही थी, परंतु नंदा के लिए इन दोनों का होना ही शायद यातना बन गया था, तभी वह अपने खून और जिगर के टुकड़े को छोड़ कर जा सकी थी. अन्य दिनों की तरह वह आज भी इस प्रश्न को टटोलती रही, पर कोई उत्तर न पा सकी.

प्रदीप आ गया था.

‘‘रानो कहां है, बूआ? दिखाई नहीं दे रही, क्या बाहर खेलने गई है?’’

‘‘सो रही है.’’

‘‘इस समय? तबीयत तो ठीक है?’’ प्रदीप चिंतातुर हो उठा.

‘‘तबीयत तो ठीक है पर उस का मन ठीक नहीं है,’’ बूआ की बात सुन कर प्रदीप प्रश्नचिह्न बना उसे देखता रहा.

‘‘आज उसे उस की मम्मी मिली थी.’’

‘‘क्या नंदा यहां आई थी?’’

‘‘नहीं. वह स्कूल के बाद उसे मिली थी. रानो लौटी तो बेहद उत्तेजित थी. घर आ कर मम्मी को याद करती रोतेरोते सो गई.’’

‘‘कैसी नादानी है नंदा की. बच्ची से मिल कर उसे इस तरह हिला देने का क्या मतलब है? यह तय हो चुका है कि बिना मेरी अनुमति के वह रानो से मिलने की चेष्टा नहीं करेगी. उस ने ऐसा क्यों किया?’’ क्रोध के मारे प्रदीप की कनपटी की नसें फड़क रही थीं.

सरला चुपचाप बैठी सब्जी काटती रही. वह क्या उत्तर दे इन प्रश्नों का. या तो वह पागल है या ये लोग, प्रदीप और नंदा, जो प्राकृतिक सत्य को झुठला कर कोई दूसरा सत्य स्थापित करने की चेष्टा कर रहे हैं. मां अपनी कोखजायी बेटी से बिना अनुमति नहीं मिल सकती? यह कैसा और कहां का नियम है? क्या खून के रिश्तों को कानून के दायरे से घेरा जा सकता है?

प्रदीप दनदनाता हुआ बाहर जाने लगा.

बूआ ने रोका, ‘‘प्रदीप, कहां जा रहा है? चाय तो पी ले, सुबह का भूखाप्यासा है.’’

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‘‘नहीं, बूआ, भूख नहीं है. जरा काम से जा रहा हूं.’’

‘‘मुझे पता है तू कहां जा रहा है. क्रोध कर के मत जा, प्रदीप. सब संबंध तोड़ देने के बाद तुझे क्रोध करने का हक भी कहां रह गया है?’’

‘‘नहीं बूआ, अब चुप रहने से काम नहीं चलेगा. वह एकदो बार पहले भी ऐसा कर चुकी है. खुशी से रह रही रानो से मिल कर वह उसे कितने दिनों के लिए तोड़ जाती है, रानो अपनी जिंदगी से दूर जा कर अलग हो जाती है. रानो के दिमाग पर इस का कितना गहरा और स्थायी असर पड़ सकता है. मैं ऐसा नहीं होने दे सकता.’’

सरला बड़ी अनमनी सी हो उठी.

‘‘तुम लोग पढ़ेलिखे हो और होशियार, पर मैं इतना जरूर कह सकती हूं कि रानो की जिंदगी आज नहीं, तुम और नंदा दोनों मिल कर बहुत पहले ही तोड़ चुके हो. जिस पौधे को कुशल माली की देखरेख में यत्नपूर्वक सुरक्षित रख कर पाला जाना चाहिए था उसे तो तुम झंझावात में अकेला छोड़ चुके हो. मां से मिलने पर कुछ नया घटित नहीं होता, केवल उस के अंदर दबाढंका विद्रोह ही उभरता है. बच्चा चाहे कुछ और न समझे, पर मां से गहरे लगाव की बात उसे समझनी नहीं पड़ती. इस बेचारी की तो मां है, यह कैसे भूल सकती है? तेरी मां तो तुझे 10-12 साल का छोड़ कर इस लोक से चली गई थी, क्या तुझे कभी उस की याद नहीं आई?’’

आगे पढें- सरला चुप हो गई. बहस…

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