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लेखिका- शशि जैन

नंदा हंसी, ‘‘यह तो अदालत नहीं है. अदालत रानो को खुशियां नहीं दे सकी. तुम्हारी जिद थी, पूरी हो गई. अब तुम्हें स्वयं लग रहा है कि रानो तुम्हारे विवाह में बाधा है या विवाह के बाद वह सुखी नहीं रह सकेगी. रानो को मुझे देने के बाद इस का भय न रहेगा, तुम सुख से रहना.’’

‘‘रानो को तुम्हें दे कर सुख से रहूं? तुम क्या अच्छी तरह उसे रख पाओगी?’’ प्रदीप का स्वर तेज हो गया था.

‘‘मैं उस की मां हूं. बड़े कष्ट से उसे जन्म दिया है. मैं उसे ठीक से नहीं रख पाऊंगी? कम से कम विमाता से तो अच्छी तरह ही रखूंगी.’’

‘‘नहीं, नंदा, रानो का भला मेरे पास रहने में ही है. तुम्हारा जिम्मेदारी का काम तुम्हें समय ही कम देगा. फिर तुम्हारे पास रह कर उसे वह शिक्षा कहां से मिलेगी, जो अच्छे बच्चे को मिलनी चाहिए. ऐश और आराम का जीवन बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा नहीं है.’’

‘‘अच्छा, मैं चलती हूं. बेकार की बातें सुन कर मन और खराब होता है. यह विडंबना ही है कि रानो मेरे और तुम्हारे संयोग से पैदा हुई. मातापिता की गलती का परिणाम बच्चों को भुगतना पड़ता है. इस बात का इस से बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है,’’ नंदा उठ कर जाने लगी.

‘‘वह बात तो तुम से कही ही नहीं जिसे कहने को तुम्हें बुलाया था. तुम रानो से मत मिला करो. वह तुम से मिल कर अस्थिर हो जाती है, टूट जाती है, जीवन से जुड़तेजुड़ते कट सी जाती है. फिर उसे सामान्य करना कठिन हो जाता है.’’

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