विवेकवेक ने लंच ब्रेक के दौरान मोबाइल पर मुझे जो जानकारी दी उस ने मुझे चिंता से भर दिया.
‘‘विनोद भैया ने किराए का मकान ढूंढ़ लिया है. मुझे उन के दोस्त ने बताया है कि
2 हफ्ते बाद वे शिफ्ट कर जाएंगे,’’ विवेक की आवाज में परेशानी के भाव साफ झलक रहे थे.
‘‘हमें उन्हें जाने से रोकना होगा,’’ मैं एकदम बेचैन हो उठी.
‘‘बिलकुल रोकना होगा, रितु. अब रिश्तेदार और महल्ले वाले हम पर कितना हंसेंगे. तुम आज शाम ही भाभी को समझना. मैं भी बड़े भैया को अभी फोन करता हूं.’’
‘‘नहीं,’’ मैं ने उन्हें फौरन टोका, ‘‘अभी आप किसी से इस विषय पर कोई बात न करना प्लीज. यह मामला समझनेबुझने से नहीं सुधरेगा.’’
‘‘फिर कैसे बात बनेगी?’’
‘‘पहले शाम को हम आपस में विचारविमर्श करेंगे फिर कोई कदम उठाएंगे.’’
‘‘ओ. के.’’
इधरउधर की कुछ और बातें करने के बाद मैं ने फोन काट दिया. खाना खाने का मन नहीं कर रहा था. मैं ने आंखें मूंद लीं और वर्तमान समस्या के बारे में सोचविचार करने लगी...
संयुक्त परिवार की बहू बन कर सुसराल आए मुझे अभी सालभर भी नहीं हुआ है. अब मेरे जेठजेठानी अलग होने की सोच रहे हैं. इस कारण मैं परेशान तो हूं, पर मेरी परेशानी का कारण जगहंसाई का डर नहीं है.
संयुक्त परिवार से जुड़े रहने के फायदों को, उस की सुरक्षा को मैं व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर जानती हूं.
मेरे पापा का दिल के दौरे से जब अचानक देहांत हुआ, तब मैं बी.कौम. के अंतिम वर्ष में पढ़ रही थी. साथ रह रहे मेरे दोनों चाचाओं का पूरा सहयोग हमारे परिवार को न मिला होता, तो मेरी कालेज की पढ़ाई बड़ी कठिनाई से पूरी होती. फिर बाद में जो मैं ने एमबीए भी किया, उस डिगरी को प्राप्त करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था.