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कलेजा बर्फ हो गया था उस का. हाथपांव सुन्न हो गए थे. घरभर के ठंडे व उपेक्षित व्यवहार का कारण पलभर में उसे समझ आ गया था. उसे ट्रेन पर बिठाते ही नीलाभ ने इन लोगों के आगे वह सारा सच उगल दिया था जिसे वे दोनों आज तक अपनी परछाईं से भी छिपा कर रखते थे. मां ने क्या आग उगली, जिज्जी ने क्या दंश दिए, सब बेमानी हो गए थे नीलाभ के विश्वासघात के आगे. अपना वश नहीं चला तो उस पर घर वालों का दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे नीलाभ. यहीं चूक गए नीलाभ. पहचान नहीं पाए उसे. वह तो उसी क्षण उसी रात पूर्णरूपेण मां बन गई थी बेटे की. ममता भी कहीं आधीअधूरी होती है. अब शरर में कुछ दोष है तो है. इस नन्ही सी जान की सेवा के लिए परिवार या नीलाभ कौन होते हैं रोड़ा अटकाने वाले. अब यह तो नहीं हो सकता कि एक दिन अचानक से एक अनजान बालक को गोद में डाल दिया और कहा, ‘यह लो, बेटा बना लो. फिर कह दिया, नहीं, यह बेटा नहीं हो सकता, छोड़ आओ कहीं.’ वह हैरान थी कि कमी उजागर होते ही बेटे पर जान न्योछावर करने वाला पिता इतना कठोर हृदय कैसे हो सकता है.

भीतर की सारी उथलपुथल भीतर ही समेटे ऊपर से सामान्य दिखने की कोशिश में अपनी सारी ऊर्जा खर्च करती वह बूआ के घर में सब से मिलतीमिलाती रही थी. नामकरण से लौट कर रात को मां तथा जिज्जी ने उसे आ घेरा था. उन्हें हजम ही नहीं हो रहा था कि उस ने सब से इतना बड़ा झूठ बोला कैसे. शक तो पहले से ही था. न दिन चढ़ने की खबर लगने दी, न दर्द उठने की, सीधा छोरा जनने की खबर सुना दी थी. छोरा न हुआ, कुम्हड़ा हो गया कि गए और तोड़ लाए. ‘अब नीलाभ नहीं चाहता है तो तू क्यों सीने से चिपकाए है छोरे को. छोड़ क्यों नहीं देती इसे. पता नहीं किस जातकुजात का पाप है. अच्छा हुआ कि छोरा अपाहिज निकला वरना हमें कभी कानोंकान भनक न होती.’ बिफर तो सुबह से ही रही थीं दोनों, पर पता नहीं कैसे जब्त किए बैठी थीं. शायद उन्हें डर था कि ये सब बातें उठते ही क्लेश मच जाएगा घर में. उस के रोनेबिसूरने, विरोध तथा विद्रोह के स्वर इतने ऊंचे न हो जाएं कि उन की गूंज बूआ के घर एकत्र हुए मेहमानों तक पहुंच जाए. सब को पता था कि वह आई हुई है विशेष तौर पर समारोह में सम्मिलित होने. बिफर कर कहीं वहां जाने से इनकार कर देती तो बिरादरी में मां सब को क्या बतातीं उस के न आने का कारण.

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