लेखक- अनिल कुमार ‘मनमौजी’

नजर बारबार उस फोटो फ्रेम से जा कर उलझ जाती है जिस के आधे हिस्से में कभी एक सुंदर सी तसवीर दिखाई देती थी, मगर अब वह जगह खाली पड़ी है. उस ने कई बार चाहा कि वह उस फोटो फ्रेम में कोई दूसरी तसवीर लगा कर वह रिक्तता दूर कर दे. मगर चाह कर भी वह कभी ऐसा नहीं कर सकी, क्योंकि वह जानती थी कि ऐसा करने से वह खालीपन दूर होने वाला नहीं. वह खालीपन उस नई तसवीर के पीछे से भी झांकेगा, कहकहे लगाएगा और कहेगा, ‘तुम कायर हो, तुम में इतनी हिम्मत नहीं कि इस खालीपन को दूर कर सको.’

आज भी स्टील का वह फोटो फ्रेम ममता की मेज पर उसी तरह पड़ा है. उस में एक तरफ ममता की फोटो लगी हुई है कुछ लजाते हुए, कुछ मुसकराते हुए, आंखें बिछाए जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रही हो. और आज भी वह वैसे ही प्रतीक्षा में आंखें बिछाए बैठी है, ठीक उस फोटो फ्रेम वाली तसवीर की तरह. अभी 3, साढ़े 3 साल ही तो बीते हैं, जब फोटो फ्रेम के उस खाली हिस्से में प्रभात की भी तसवीर दिखाई देती थी. आज तो यह नाम भी जैसे अंदर तक चीर जाता है. यही नाम तो है जो इतने सालों से उसे सालता रहता है. एकाएक कार के हौर्न से उस का ध्यान टूट गया. यह हौर्न बगल वाले कमरे की चंचल और शोख किम्मी के लिए था. इसी तरह होस्टल की हर लड़की का कोई न कोई चाहने वाला था.

कभीकभी ममता को भी लगता, काश, इन में से एक हौर्न उस के लिए भी होता. उसे इस होस्टल में रहते हुए पूरे 2 साल होने को आए थे. आज से 2 साल पहले जब वह इस नए शहर के एक स्कूल में अध्यापिका हो कर आई थी तो उस की अकेली रहने की समस्या इस होस्टल ने पूरी कर दी थी, जहां उस के समान कितनी ही लड़कियां, शायद लड़कियां नहीं, औरतें, रहा करती थीं. यहां किसी का भी भूतकाल पूछने की पद्धति नहीं थी. सभी वर्तमान में जीती थीं. वह भी किसी तरह अपने दिन गुजार रही थी. खैर, दिन तो किसी तरह गुजर जाते थे, मगर रातें, न जाने कहां से ढेर सारा सूनापन किसी भयानक स्वप्न की तरह आ घेरता. ऐसे क्षणों में उसे किसी ऐसे साथी की आवश्यकता महसूस होने लगती जो उस के दिनभर के सुखदुख को बांट सके. ऐसे नाजुक क्षणों में उसे महसूस होता कि नारी सचमुच पुरुष के बिना कितनी अधूरी है. उसे किसी साथी की आवश्यकता है क्योंकि यह उस के मन की, उस के शरीर की आवश्यकता है. सब आवश्यकताओं की पूर्ति तो वह कर सकती है, मगर यह आवश्यकता? और तब उसे प्रभात की आवश्यकता महसूस होने लगती.

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