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दीप्ति को एकाएक लगा मानों उस ने जो सुना वह उस के कानों का भ्रम था. भ्रम भी छोटामोटा नहीं बल्कि होश उड़ा देने वाला. इतना बड़ा भ्रम होना कोई छोटी बात नहीं. वह बेहद सदमे में थी. उस के वजूद की जड़ें हिल गईं. कुछ ही पल पहले जो पंख आसमान नाप रहे थे, अचानक जैसे किसी ने तीखे धारदार हथियार से चाक कर डाले और अब वह पंखविहीन गोते खाती पतंग सरीखी पथरीली जमीन की तरफ गिर रही है.
वह तय नहीं कर पा रही थी कि इसे कुदरत का खेल कहा जाए या खुद उस की नासमझी… मगर सच तो अजगर की तरह मुंह फाड़े उस के सामने खड़ा था और वह थी कि भय से आंखें चौड़ी किए अपने ऊपर झुके हुए कदम को घूर रही थी.

कदम चौहान… हां, यही तो वह नाम था जिस ने उसे गलतफहमी का शिकार बनाया. नहींनहीं नाम नहीं उपनाम कहना अधिक सही है. और फिर उस की कदकाठी भी तो उस के उपनाम से मेल खा रही थी. ऐसे में कोई भी धोखा खा सकता है. वह तो फिर भी एक कमउम्र नासमझ लड़की थी जिसे दुनिया अभी एक कटोरी जितनी ही बड़ी दिखती थी.

“घर से बाहर जा रही हो. बहुत से लोग आएंगे जिंदगी में. हमें तुम्हारी पसंद पर कोई ऐतराज भी नहीं होगा बशर्ते कि लड़का पानी मिलता हो,” पहली पोस्टिंग पर झीलों की नगरी उदयपुर जाती दीप्ति को मां ने नसीहत दी थी. दीप्ति ने अचरज से मां की तरफ देखा मानों ‘पानी मिलता’ का मतलब पूछ रही हो.

“पानी मिलता यानी जिस के साथ बैठ कर पानी पीया जा सके. किसी ऐसीवैसी जातबिरादरी में मत फंस जाना,” मां ने अपने कहे की व्याख्या की.

इस के साथ ही ‘ऐसीवैसी जातबिरादरी’ की परिभाषा जानने की उत्कंठा भी अब दीप्ति की आंखों में दिखाई देने लगी. मां इसे भी स्पष्ट करती इस से पहले ही पापा ने उस का बैग उठा कर अपने कंधे पर टांग लिया,”अब चल भी. ट्रेन तेरे इंतजार में रुकी नहीं रहेगी,” कहते हुए पापा उस का सामान औटो में रखने लगे.

खनिज विभाग के मुख्यालय में उसे जौइन करवा कर पापा वापस लौट गए थे. अभी हालफिलहाल उस के रहने की व्यवस्था सरकारी गैस्टहाउस में हो गई थी लेकिन यह अस्थाई थी. जल्दी ही उसे अपने लिए दूसरी व्यवस्था करनी होगी. सहकर्मियों के प्रयासों से दीप्ति की यह समस्या भी सुलझ गई. उसे अपने औफिस के पास ही मीरा मार्ग पर किराए का कमरा मिल गया.

शुरू के कुछ महीने तो उसे स्टाफ से परिचित होने और अपनी डैस्क का काम समझने में ही बीत गए. इस बीच मांपापा भी उदयपुर आतेजाते रहे. मां अकसर उस से स्टाफ के लोगों की जानकारी लेती रहती थी. मसलन, जिस के साथ दीप्ति उठतीबैठती है वह किस जातबिरादरी का है या फिर कहीं उस का मेलजोल किसी ऐसे व्यक्ति के साथ तो नहीं बढ़ रहा जिस के साथ घनिष्ठता भविष्य में किसी सामाजिक परेशानी का कारण बने वगैरहवगैरह…

अनजान शहर में कोई जरा सी भी मदद कर दे तो वह अपने लिए एक विशेष स्थान बना लेता है. कदम भी ऐसा ही व्यक्ति था जिस ने इस नई जगह पर दीप्ति की मदद की थी. हुआ यों कि किराए का कमरा तो दीप्ति को उस के साथियों ने दिला दिया था मगर वह कमरा फर्निश्ड नहीं था. जिंदगी को आसान बनाने वाला सामान तो उसे चाहिए ही था. कदम ने इस काम में उस की मदद की थी. चूंकि वह उदयपुर का स्थाई निवासी था इसलिए बेहतर जानता था कि दीप्ति के काम का कौन सा सामान उसे कहां सब से अधिक किफायती दर पर मिल सकता है. इसी प्रयास में दीप्ति का कई बार कदम के साथ इधरउधर आनाजाना भी हुआ.

कई बार शाम को देर होने पर दोनों ने फतहसागर झील के किनारे डोसा बाईट रेस्तरां में साथसाथ साउथ इंडियन फ़ूड का जायका भी चखा था. सिर्फ इतना ही नहीं, अनजाने ही कदम ने दीप्ति को शहर से परिचित करवाने की जिम्मेदारी भी ले ली थी. कभी सिटी पैलेस तो कभी गुलाबबाग की पगडंडियां दोनों ने साथसाथ नापी थी. 1-2 बार कदम उसे फतहसागर झील के भीतर बने नेहरू गार्डन की सैर करवाने भी ले गया था और नेहरू गार्डन ही क्यों, वह तो उसे सहेलियों की बाड़ी और चेतक मैमोरियल भी घुमा लाया था. सुखाड़िया सर्किल पर दोनों ने कितनी ही बार चाट और गोलगप्पों का मजा लिया था. कहना न होगा कि दोनों को ही एकदूसरे का साथ सुहाने लगा था.

अनजान शहर में कदम के रूप में उसे एक ऐसा साथी मिल गया था जो दोस्त, मार्गदर्शक, प्रेमी वगैरह अनेक भूमिकाएं अकेला ही निभा रहा था. दीप्ति उस के साथ खुद को सुरक्षित महसूस करती थी.

यह कहना बिलकुल गलत होगा कि उन दोनों को साथ देख कर स्टाफ की आंखें उन्हें अनदेखा कर देती थीं क्योंकि न तो समाज में अभी इतना बदलाव आया है और न ही एकसाथ सब की आंखें खराब हुई थीं. तो जाहिर सी बात है कि दीप्ति और कदम का साथ भी बहुत सी गौसिप में मुख्य विषय हुआ करता था लेकिन दीप्ति इन सब से बेपरवाह अपनी धुन में मस्त रहती थी. उस की मां ने उसे प्रेम करने की आजादी जो दे रखी थी.

इस बीच कई बार दीप्ति को नवल की जाति को ले कर खयाल भी आया लेकिन उस के उपनाम ‘चौहान’ ने उसे शंका से बाहर निकाल लिया. कदम की हाइट 6 फीट से कम नहीं थी. उस के भारी चेहरे पर ऊपर की तरफ उठी हुई नुकीली मूंछें उस के राठौड़ी ठसके को जीवंत कर देती थी. बातबात में जब कदम दीप्ति को ‘हुकुम’ कहता तो उस की पलकें बेशक लाज से झुक जातीं लेकिन उस का माथा गरूर से तन जाता था. यह नजाकत और नफासत ही तो राजपूतों की असल पहचान है.

दीप्ति को अपने पापा के दोस्त कर्नल हेमसिंह शेखावत याद आ जाते जिन के साथ पापा क्लब जाते हैं. मां कितनी कायल थी शेखावत अंकल के रुआब की. हर समय उन की जबान पर शेखावत अंकल की तारीफें ही होती थीं. शायद मन ही मन वे दीप्ति के लिए भी ऐसे ही किसी जीवनसाथी की कल्पना करती होंगी. कदम के साथ कुछ समय बिताने के बाद दीप्ति को लगने लगा था कि वह मां के सपने को साकार करने के करीब पहुंच गई है.

यानी मां के शब्दों में कहें तो कदम उन के लिए ‘पानी मिलता’ रिश्ता था और खुद उस के लिए मन मिलता…
बस फिर क्या था, दीप्ति ने अपनी आंखों को सपने देखने की छूट दे दी. अपने पंखों को आसमान नापने की आजादी भी. जमीन पर दीप्ति अपने सपनों के साथ उड़ती कदम के साथ भविष्य की कल्पनाओं में डुबकियां लगा रही थी. ‘पहली बार फतहसागर की पाल पर भुनी हुई मक्का खातेखाते जब उस ने धीरे से कदम का हाथ छू लिया था तब कैसे सिहर गया था कदम,’ याद करते ही दीप्ति अकेले में मुसकराने लगती है.

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