लेखक- डा. भारत खुशालानी
स्याही को सूखने के लिए रख दिया जाता. तत्पश्चात यह देखा जाता कि उस के छिल जाने या रंग उतरने का खतरा तो नहीं. कुछकुछ अंतराल पर ऐसी टेबलें थीं, जिन में नीचे से प्रकाश आ रहा था, जिस से टेबल के ऊपर रखे पतंग के कपडे की जांच हो सके कि उस में छेद या कोई और नुक्स तो नहीं है. पतंग के अलगअलग रंग के गत्तों को एक कारीगर बड़े प्रेम से टेप लगा कर चिपका रहा था. टेप से चिपके हुए गत्ते सिलाई मशीन तक जा रहे थे, जहां एक महिला मशीन से उन की सिलाई कर रही थी. जैसे कागज की पतंग पर बारीक लकड़ी की तीलियां लगती थीं, यहां उन तीलियों के बजाय रौड से पतंग का ढांचा बनाया जा रहा था जिस से पतंग के सिकुड़ने का डर नहीं था.
फैक्टरी देख कर दिलेंद्र को दंग रहते देखा तो जिव्हानी ने हंसते हुए कहा, ‘‘कागज की पतंग कभी आसमान में बादलों को नहीं छू सकती है. लेकिन आधुनिक तरीके से बनाई ये पतंगें छूने में सक्षम हैं.’’
स्तब्ध दिलेंद्र ने पूछा, ‘‘यह सब पिताजी ने सीखा कहां से?’’
पिताजी ने अपने नाम का जिक्र सुना तो बुला कर एक ज्यामितीय आकार की तीनआयामी पतंग दिखाई. त्रिकोणीय बक्से सी दिखने वाली पतंग पर वे काम कर रहे थे, ‘‘मिस्र के पिरामिड देखे हैं? उन्हीं के आकार की पतंग है यह वाली.’’
माताजी, जो कांच के बने औफिस के अंदर लेखांकन का काम कर रही थीं, ने कहा, ‘‘पहले जिव्हानी महज शौकिया नजरिए से पतंगों को देखती थी.’’
‘‘अब वह दार्शनिक हो गई है. कहती है कि डोर तो मेरे हाथ में है, लेकिन
पतंग कोई और उड़ा रहा है,’’ पिताजी बोले.
दिलेंद्र ने हंसते हुए कहा, ‘‘बिलकुल सही बात है. न जाने कब किस की नौकरी छूट जाए, किसी का परिवार टूट जाए, इन्हीं सब को भारतीय दर्शन में कटी हुई पतंग से जोड़ा जाता है.’’
जिव्हानी को ऐसा लगा कि दिलेंद्र और उस की सोच मेल
खाती है.
‘‘कितनी उमंगों के साथ उड़ती हुई हमारी बच्ची नौकरी के लिए इस घर से निकली थी…’’
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माताजी ने तुरंत बात काट दी, ‘‘सब कुदरत का लेखाजोखा है,’’ पिताजी बोले.
दिलेंद्र को कुछ भी नहीं समझा कि वे क्या कह रहे हैं. उस ने बात को कुरेदना उचित नहीं समझा.
वापस जाते वक्त पिताजी ने अपनी पसंद की एक बड़ी सी आलीशान पतंग दिलेंद्र को भेंट की. उस की खुशी की सीमा न रही.
अगले दिन उस ने भैयाभाभी के घर संपूर्ण किस्सा
बयां किया. भाभी ने अचरज से कहा, ‘‘मैं तो जानती हूं जिव्हानी को, हमारे ही स्कूल में पढ़ती थी. मुझ से 1 साल छोटी है. मुझे नहीं पता था कि अब वह यहां आ गई है रहने के लिए.’’
भैयाभाभी तुरंत दिलेंद्र के साथ उस के घर गए. भैया और दिलेंद्र घर पर ही रहे, भाभी जिव्हानी से मिलने उस के फ्लैट पहुंची.
भाभी ने घंटी बजाई. जिव्हानी ने दरवाजा खोला तो पहचान न सकी. भाभी ने परिचय दिया, तो खुशी से भाभी का स्वागत किया. चाय पिलाई. दोनों ने बहुत बातें की. अस्तव्यस्त सामान में भाभी को एक तसवीर दिखी जिस में जिव्हानी की गोद में छोटी उम्र का स्वाभेश था और उनके साथ एक व्यक्ति था.
भाभी ने फोटो की ओर इशारा कर पूछा, ‘‘ये पति हैं?’’
जिव्हानी ने थोड़ी मायूसी से कहा, ‘‘थे.’’
भाभी समझ गई कि मामला नाजुक है. अत: उस ने कुछ नहीं कहा.
जिव्हानी ने स्वयं ही कह दिया, ‘‘चल बसे.’’
जिव्हानी के साथ कोई नजदीकी रिश्ता न होते हुए भी भाभी को यह सुन कर बहुत दुख हुआ.
‘‘2 साल पहले गुजर गए,
तब स्वाभेश 5 साल का था. कुछ समय वहीं रह कर नौकरी की, फिर मन लगना बंद हो गया. इसीलिए यहां चली आई हूं. अब पिताजी की ही पतंग फैक्टरी संभालूंगी,’’ जिव्हानी बोली.
जिव्हानी ने सही निर्णय लिया था. इतनी कम उम्र में ऐसा हादसा हो जाना किसी भी इंसान को असमंजस की स्थिति में डाल देने के लिए काफी था. स्वयं को भ्रमित महसूस कर इस उलझन और शहर से बाहर निकलना ही उसे उपयुक्त लगा. कोई उसे दोष नहीं दे सकता था. मांबाप ने बहुत समझाया कि उन्हीं के साथ रहे, कोई कुछ नहीं कहेगा, लेकिन वह अड़ी रही कि उसे अपनी जिंदगी आगे भी बढ़ानी है. सब से जटिल कार्य उसे यह लगा कि स्वाभेश को कैसे बताए. 5 वर्ष के बच्चे को क्या स्पष्ट और प्रत्यक्ष शब्दों का प्रयोग कर के कहा जा सकता है कि उस के पिताजी की मृत्यु हो गई है? किस प्रकार की प्रतिक्रिया होगी उस की?
मगर न तो वह रोया, न ही उस ने कोई सवाल पूछा. जिव्हानी को लगा कि शायद अपने दुखी होने की भावना को वह अपने बच्चे से साझा करे तो हो सकता है कि उस की भी भावनाएं सामने आ जाएं. शहर छोड़ते वक्त भी उसे ग्लानि महसूस हुई कि 7 साल के बालक को कैसे बताया जाए कि उसके जीवन और उस की दिनचर्या दोनों में बदलाव आने वाला है, इस के लिए वह तैयार हो जाए. अपने बेटे को दिलेंद्र के साथ सामान्य तरीके से व्यवहार करते देख समझ में आ गया कि स्वाभेश ने अपनी नई जिंदगी को बिना किसी झिझक के अपना लिया है.
भाभी वापस चली आई तथा भैया और दिलेंद्र को स्थिति से अवगत किया. फिर भैया और भाभी वापस अपने घर लौट गए.
शाम को फिर पार्क में पतंगें हवा में लहराने लगीं. उड़ती हुई पतंगें देख कर सभी खुश थे. आसमान में उड़ नहीं सकते तो क्या हुआ, कम से कम पतंग तो उड़ा सकते हैं. जिन वयस्कों के परिवार थे और उन की स्त्रियां यह दलील देती थी कि ए जी, आप तो इतने बड़े हो गए हो. अब क्यों आप पतंग उड़ा रहे हो? तो उन्हें वे कहते कि श्रीराम ने भी तो पतंग उड़ाई थी.
पार्क में एक पागल भिखारी कचरे में मिली हुई एकदम पतले कपडे़ की बनी टोपी को रस्सी से बांध कर पतंग बना कर उड़ाने का प्रयास कर रहा था. बच्चों का एक झुंड, कटी हुई पतंग को लूटने के लिए दौड़ रहा था.
दिलेंद्र जब अपने कुत्ते को ले कर पार्क पहुंचा, तो स्वाभेश को पतंग उड़ाने की कोशिश करते पाया. दिलेंद्र ने स्वाभेश को धागे का तनाव बनाए रखने के गुर सिखाए ताकि कमान तनी रही. किस प्रकार हवा पतंग के नीचे से होती हुई ऊपर से गुजर जाती है, इस के बारे में समझाया ताकि स्वाभेश हवा के प्रवाह का लाभ उठा सके और पतंग को निश्चित दिशा दे सके. ठीक हवाईजहाज की तरह पतंग के नीचे हवा का दबाव ज्यादा होने से वह हवा में उड़ पाती है, इस वैज्ञानिक सिद्धांत को समझाया. थोड़ी ही देर में स्वाभेश ने ढील देने के दांवपेंच सीख लिए.
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जब स्वाभेश वापस घर लौटा, तो सूर्यास्त हो चुका था. ्र
आज वह 7वें आसमान पर था. संक्रांति महोत्सव से पहले उस में इतना आत्मविश्वास तो भर ही जाएगा कि वह चंद लोगों के साथ पेंच लड़ा सके. घर में उस के नानानानी आए हुए थे. नानी ने गरमगरम बेसन और प्याज के पकोड़े तले थे.
जिस आदमी के साथ स्वाभेश और उस की मम्मी फैक्टरी आए थे, उस के विषय में चर्चा हो रही थी.
‘‘क्या करता है वह?’’ नानी
ने पूछा.
‘‘डांस सिखाता है. बच्चों को भी, बड़ों को भी,’’ जिव्हानी ने बताया.
‘‘और पतंग उड़ाने में भी नंबर वन,’’ स्वाभेश बोला.
‘‘तभी तो फैक्टरी में इतने ध्यान से सबकुछ देख रहा था,’’ नाना बोले.
‘‘और एक प्यारा सा कुत्ता भी है उनके पास, शांतिसिंह नाम का,’’ स्वाभेश ने बताया.
‘‘स्वाभेश भी उस से डांस सीखेगा,’’ जिव्हानी बोली.
अगले दिन दिलेंद्र की मुलाकात अपने भैयाभाभी से हुई तो एक बार फिर किसी के साथ उस के मेलमिलाप की संभावना की चर्चा हुई.
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