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निविदा को चंडीगढ़ के मशहूर गर्ल्स कालेज में प्रवेश मिल गया था. उस की खुशी का ठिकाना न था. उज्ज्वल भविष्य की एक उम्मीद तो पक्की हो ही गईर् थी, पर सब से बड़ी बात यह थी कि वह अपने घर से भाग जाना चाहती थी. घुटन होती थी उसे यहां रहने में. नफरत हो गई थी उसे पिता की दबंगता व मम्मी की भीरुता से.

निविदा उठ कर अपनी स्टडी टेबल पर बैठ गई. मन में पिता के रौद्र रूप का कुछ ऐसा डर बैठा कि वह अपनी सहेलियों के पिताओं से भी डरने लगी. कोई उस से ऊंची आवाज में कुछ पूछ लेता तो उस के मुंह से शब्द नहीं निकल पाते. ऐसी स्थिति उस के साथ अकसर आती.

उस की सहेलियां अकसर उस का मजाक उड़ातीं, ‘‘कब तक बच्ची बनी रहेगी?’’

मम्मी का कभी सिर फूटा होता, कभी गालों पर थप्पड़ों के निशान होते, तो कभी पीठ पर नील पड़े होते. मम्मी को तो लंबे समय तक नाराज रहने या बोलचाल बंद रखने का भी अधिकार नहीं था. पापा से अधिक मुंह फुला कर बात करना भी उन्हें भारी पड़ जाता. वे और पिट जातीं. अगर पिटतीं नहीं तो खाने की थाली फिंकती या घर की कोई अन्य चीज टूटती. घर का वातावरण हमेशा तनावपूर्ण बना रहता. उस में सांस लेना दूभर हो जाता.

बचपन की याद आते ही निविदा का मन कड़वाहट से भर गया. उसे याद आया कि

क्लास में टीचर अचानक खड़ा कर के कोई

प्रश्न पूछते तो उत्तर आते हुए भी वह बता नहीं पाती थी और अगर टीचर ने डांट दिया तो उस की बोलती अगले कई दिनों के लिए बंद हो

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