0:00
12:24

रूपा का पत्र पढ़ कर मन चिंतित हो उठा. वह आ रही है और अभी वेतन प्राप्त होने में 10 दिन शेष हैं. खाली पड़े नाश्ते के डब्बे मुझे मुंह चिढ़ा रहे थे. नाश्ते में मक्खन का प्रयोग कब का बंद हो चुका है. बड़ी तो सब समझती है. वह डबलरोटी पर चटनी, जैम कुछ भी लगा कर काम चला लेती है पर छोटी वसुधा तो गृहस्थी की विवशताओं से अनजान है. वह नित्यप्रति मक्खन के लिए शोर मचाती है. ऐसे में रूपा आ रही है पहली बार नन्हे बच्चे के साथ. पिछली बार आई थी तो 200 रुपए की साड़ी देते कैसी लज्जा ने आ घेरा था. फिर इस बार तो पति व बच्चे के साथ आ रही है. कितना भी कम करूं हजार रुपए तो खर्च हो ही जाएंगे. सामने रूपा का पत्र नहीं मानो अतीत का पन्ना फड़फड़ा रहा था. पिताजी ईमानदार, वेतनभोगी साधारण सरकारी कर्मचारी थे. जहां उन के सहयोगियों ने जोड़तोड़ लगा कर कार व कोठी खरीद ली वहीं वे अपनी साइकिल से ही संतुष्ट रहे. उन के कनिष्ठ जीहुजूरी व रिश्वत के बल पर पदोन्नति पाते गए जबकि वे हैडक्लर्क की कुरसी से ही जीवनभर चिपके रह गए.

मेरे जन्म के पश्चात जब 5 वर्ष तक घर में कोई और शिशु न जन्मा तो पुत्र लालसा में अंधी मां अंधविश्वासों में पड़ गईं, किंतु इस बार भी उन की गोद में कन्यारत्न ही आया. रूपा के जन्म पर मां किंचित खिन्न थीं. पिता के माथे पर भी चिंता की रेखाएं गहरी हो उठी थीं किंतु मेरी प्रसन्नता की सीमा न थी. मेरा श्यामवर्ण देख कर ही पिता ने मुझे श्यामा नाम दे रखा था. अपने ताम्रवर्णी मुख से कभीकभी मुझे स्वयं ही वितृष्णा हो उठती. मांपिताजी दोनों गोरे थे फिर प्रकृति ने मेरे साथ ही यह कृपणता क्यों की. किंतु रूपा शैशवावस्था से ही सौंदर्य का प्रतिरूप थी. विदेशी गुडि़या सी सुंदर बहन को पा कर मेरी आंखें जुड़ा गईं. उसे देख मेरा प्रकृति के प्रति क्रोध कुछ कम हो जाता, अपने कृष्णवर्ण का दुख मैं भूल जाती. मैं अपनी कक्षा में सदैव प्रथम आती थी. परंतु बीए के पश्चात मुझे अपनी पढ़ाई से विदा लेनी पड़ी. पिताजी की विवश आंखों ने मुझे प्रतिवाद भी न करने दिया. रूपा अब बड़ी कक्षा में आ रही थी और पिताजी दोनों की शिक्षा का भार उठा सकने में असमर्थ थे. हम जिस मध्यमवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं वहां कन्या का एकमात्र भविष्य उस का विवाह ही है, इस में भी मेरा श्यामवर्ण आड़े आ रहा था. यहांवहां, भागदौड़ कर के आखिरकार पिताजी ने मेरे लिए एक वर जुटा लिया. प्रभात न केवल एक सरकारी अनुष्ठान में सुपरवाइजर थे वरन उन के पास अपना स्कूटर भी था. जिस का जीवन साइकिल के पहियों से ही घिसटता रहा हो उस के लिए स्कूटर वाला जामाता पा लेना वास्तव में बहुत बड़ी बात थी.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD48USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD100USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...