लेखिका- रेनू मंडल
एक शाम पापा के मित्र सुरेश अंकल आए. बातों ही बातों में वह पापा से बोले, ‘‘एक बात मुझे समझ नहीं आई. आप ने जब जतिन और स्वाति को विवाह की इजाजत दे दी थी तो फिर जतिन घर से अलग क्यों हुआ और क्यों उस ने स्वयं मंदिर में शादी कर ली?’’
‘‘अब तुम्हें क्या बताऊं? छोटीछोटी बातों में हमारे विचार मेल नहीं खा रहे थे किंतु इस का मतलब यह तो नहीं कि घर से अलग हो जाओ और स्वयं शादी रचा डालो. पालपोस कर क्या इसी दिन के लिए बड़ा किया था?’’ दबी जबान में पापा बोले.
‘‘यार, अब जमाना बहुत बदल गया है. आज की युवा पीढ़ी इन सब बातों को कहां सोचती है? मांबाप के प्रति भी उन का कुछ फर्ज है, ऐसी भावनाओं से कोसों दूर वे अपने स्वार्थ में लिप्त हैं.’’
अंकल के जाते ही मम्मी भड़क उठीं, ‘‘दोस्त के आगे बेटे को क्यों कोस रहे थे? अपनी बात भी तो उन्हें बताते कि मैं ही दहेज मांग रहा था. तुम्हारे पैसे के लालच के कारण ही जवान बेटे को घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. मेरी क्याक्या इच्छाएं थीं बेटे की शादी को ले कर किंतु सब तुम्हारे लालच की आग में भस्म हो गईं.’’
मम्मी रोने लगीं. पापा उन के आंसुओें की परवा न करते हुए चिल्लाए, ‘‘तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं अकेला ही पैसे की इच्छा कर रहा था. क्या तुम इस काम में मेरे साथ नहीं थीं? आज बड़ी दूध की धुली बन रही हो. इतनी ही पाकसाफ थीं तो उस समय मुझ से क्यों नहीं कहा कि दहेज मत मांगो. नीलू, तू ही बता, क्या तेरी मम्मी दहेज लेना नहीं चाहती थीं?’’