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लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

अंशिका जो बड़े ध्यान से अब तक जुगल की बातें सुन रही थी, अचानक पूछ बैठी, “अच्छा जुगल, एक बात बताओ. तुम इतने उदास और गंभीर क्यों रहते हो?”

“इन सब के पीछे लंबी दास्तान है. शोषण, स्वार्थ और सफेदपोश दिखने वाले लोगों से मैं जितनी नफरत करता था, आज उन्हीं के बीच मजबूरी में ये नौकरी कर रहा हूं. मैं ही नहीं मेरा भाई शिवम, जो उन के औफिस या यों कहो कि पर्सनल सिक्योरिटी में रातदिन लगा रहता है. वह तो इन की काली करतूतें देख कर खून का घूंट पी कर रह जाता है.”

“काली करतूतें...? मैं कुछ समझी नहीं.”

“आप न ही समझिए तो अच्छा है. हम तो मजबूर हैं, इसलिए जमे हुए हैं. जिस दिन स्थितियां अनुकूल होंगी और फैक्टरियां खुल जाएंगी, उसी दिन ऐसी नौकरी को हम लात मार कर चले जाएंगे.”

अंशिका ने आगे पूछा, “तुम्हारे इस संस्थान में कुछ लड़कियां भी काम करती हैं क्या?”

“हां, कंप्यूटर में डाटा एंट्री का काम 3 लड़कियां करती हैं और एक मजबूर शादीशुदा लड़की को उन्होंने अभी कोई एक महीना पहले उस के पति की कोरोना से मौत हो जाने के बाद रखा है.”

“इन दिनों तो इस संस्थान ने हेल्थ वर्कर्स को अपौइंटमेंट कर के अस्पतालों में ड्यूटी पर भेजने का भी ठेका ले रखा है.”

जुगल के जाने के बाद अंशिका सोचने लगी, कंप्यूटर में डाटा एंट्री का कोर्स तो उस ने भी किया हुआ है और मैं यह काम अच्छे से कर भी सकती हूं. लेकिन, बनवारी अंकल की वो गंदी नीयत…

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