लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर
चलते समय एक बार और अंशिका के कंधे, सिर और गाल पर हाथ फेरता हुआ बनवारी चला गया.
पर, आज उसे न जाने क्यों बनवारी अंकल की नीयत में खोट नहीं दिखाई दिया. उसे तो औफिस इंचार्ज वाली कुरसी दिखाई दे रही थी.
फिर कंधे, सिर और गाल पर तो उस के पापा भी हाथ फेर लिया करते थे.
अगले दिन 2 बजे तक अंशिका अपने सारे प्रमाणपत्र फाइल में रख कर तैयार हो कर ड्राइवर का इंतजार कर रही थी. बहुत दिनों बाद जिस ढंग से उस ने मां के कहने पर उन की सुंदर सी साड़ी पहन कर अपने को सजायासंवारा था, उस से उस की सुंदरता इतनी निखर आई थी कि मां को उसे अपने पास बुला कर उस के कान के पीछे काजल का टीका लगा कर कहना पड़ा, "मेरी ये साड़ी पहन कर तू कितनी सुंदर लग रही है. मेरा ब्लाउज भी तुझे एकदम फिट आया है. तू तो शादीलायक हो गई है. काश, तेरे पापा और भैया..." कहतेकहते कुमुद रोने लगी.
अंशिका ने पास जा कर मां को संभाला. मुझे रो कर इंटरव्यू के लिए भेजोगी, तो मैं पास होने से रही. और मां रोने से होगा क्या... दिन में कितनी बार रोरो कर तुम अपना बुरा हाल…
अंशिका इतना ही कह पाई थी कि किसी ने बाहरी दरवाजा खटखटाया. अंशिका समझ गई कि उसे लेने बनवारी अंकल का ड्राइवर आ गया है.
उस ने जा कर दरवाजा खोला. जुगल ही था. सजीधजी अंशिका को देख कर वह ठगा सा खड़ा रह गया. ऐसी ही तो पत्नी पाने की चाह वह रखता था. और ये उस सियार के पास नौकरी पाने के लिए इंटरव्यू देने जा रही है, जो कई मजबूर जीवों का खून चूस कर छोड़ चुका है.