जिंदगी की आखिरी दहलीज पर हरीश बाबू ने खुद को अकेलेपन व तकलीफ में पाया. सुमंत का प्यारलगाव भी उन के प्रति स्वार्थपरक निकला. लेकिन उन के पास वसीयत के तौर पर आखिरी हथियार तो बचा ही था.