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इधर कुछ दिनों से वे महसूस कर रहे थे कि प्रभा ने उन की मदद के बगैर कैसे परिवार की जिम्मेदारी अकेले अपने कंधों पर उठा रखी थी. उन का बचपन अपने ही घर में आश्रित की तरह रह कर गुजरा. सो, अपने बच्चों को उन्होंने हद से बढ़ कर लाड़प्यार दिया. बच्चों के कारण पत्नी से भी कड़क व्यवहार किया. उस की उपेक्षा ही कर दी. उसे अधिकार ही नहीं दिया कि वह बच्चों में उचित संस्कार डाल पाए.

प्रभा सब्जी ले कर आ रही थी. आंचल से पसीना पोंछते हुए वह घर में दाखिल हुई. उसे देख कर उन के हृदय में बहुत ही दया आई.

‘‘आओ, घड़ी दो घड़ी सुस्ता लो,’’ वे स्नेह से बोले.

लेकिन प्रभा उन के मन में उठ रहे बवंडर से अनजान थी.

‘‘फुरसत कहां है, अब खाना बनाने में जुटना पड़ेगा,’’ प्रभा बोली.

‘‘खाना विभा बना देगी,’’ दीपकजी ने कहा.

यह सुन कर प्रभा हैरत से उन्हें देखने लगी, फिर धीरे से बोली, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है? विभा को खाना बनाना कहां आता है?’’

‘‘नहीं आता तो सीख लेगी,’’ उन्होंने तरल स्वर में कहा, ‘‘प्रभा, दिनरात खटतेखटते तुम कितना थक जाती होगी, मु?ो महसूस हो रहा है कि बच्चों को मेरे अत्यधिक लाड़प्यार ने बिगाड़ कर रख दिया है. वे मांबाप का दुखदर्द जरा भी नहीं समझते.’’

‘‘मांबाप का न सही, दूसरों का तो खूब समझते हैं, जानते हैं, विकास अपने पड़ोसियों के कितने काम आता है? विभा भी सहेलियों के लिए प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार रहती है.’’

सुन कर दीपक कुछ क्षण चुप रहे. वे प्रभा का व्यंग्य भलीभांति समझ रहे थे. फिर एकाएक दृढ़ स्वर में बोले, ‘‘प्रभा, माना कि बच्चों को बड़ा करने में मुझ से बड़ी भूल हुई. उन के व्यक्तित्व के विकास का रास्ता घर से हो कर ही बाहर की ओर जाता है, यह बात मैं खुद नहीं समझ पाया तो उन्हें क्या समझता, लेकिन अभी भी समय हाथ से नहीं निकला है. उन्हें सुधारने की कोशिश तो की ही जा सकती है न.’’

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