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सुबह से ही पूरे घर में जैसे भूचाल सा आ गया था. लड़के वाले फर्रुखाबाद से

हरदोई लंच टाइम तक आने वाले थे. दोनों गृहिणीयां भोजन के इंतजाम में व्यस्त हो गईं. शांभवी और इशिता कमरे में कपड़ों के ढेर के सामने खड़े हो एकदूसरे के ऊपर टीकाटिप्पणी में व्यस्त हो गईं.

‘‘यह ड्रैस कैसी है दी?’’ इशिता ने लौंग स्कर्ट और सफेद टौप पहन इठलाते हुए पूछा.

‘‘कुछ भी पहन ले... वैसे भी तुझे सब के सामने आने की मनाही है,’’ शांभवी ने मुंह बिचका कर चिढ़ाया.

‘‘अरे, तुम्हारे विजय के लिए तैयार नहीं हो रही हूं. अपने लिए तैयार हो रही हूं,’’ कह कर उस ने कपड़ों के ढेर से कपड़े निकाल कर सहेजने शुरू कर दिए.

‘‘ मेरा विजय... अभी हमारा रिश्ता तय नहीं हुआ है,’’ शांभवी ने कहा.

‘‘तेरे बौयफ्रैंड को पता है यह?’’ रिश्ता इशिता ने पूछा.

‘‘कालेज फ्रैंड हैं बौयफ्रैंड नहीं... वह जौब करने चंडीगढ़ चला गया है अब ज्यादा बात नहीं होती,’’ शांभवी ने लापरवाही से कहा.

‘‘तब ठीक है मुझे लगा कि तू उसे धोखा दे रही है,’’ इशिता ठंडी सांस भर कर बोली.

‘‘तू सुना, अभी तक कोई बौयफ्रैंड नहीं बना?’’

‘‘नहीं, मुझे बौयफ्रैंड, शादी इन सब में फिलहाल कोई इंटरैस्ट नहीं है. मेरा सारा ध्यान अच्छी नौकरी ढूंढ़ने में लगा है. सच कहूं तो पापा का तानाशाही रवैया देख मेरा तो शादी करने का मन ही नहीं करता है. मम्मी इतनी मेहनत कर कमाती हैं पर पापा 1-1 रुपए का हिसाब रखते हैं. सारी शौपिंग, इनवैस्टमैंट सबकुछ पापा की मरजी से ही होता है.’’

तभी उन के कमरे का दरवाजा खटखटा कर रितिका ने कहा, ‘‘यह साड़ी शांभवी को पहना दो... विजय की दादी भी साथ आ रही हैं.’’

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