लेखिका-दिव्या साहनी
उस दिन नीरजा ने छोलेभूठूरे बनाने की तैयारी करी हुई थी. चोट लगने से पहले छोले उस ने तैयार कर लिए थे. अब भठूरे बनाने की जिम्मेदारी शिखा के ऊपर आ पड़ी.
‘‘मैं ने अपनी मम्मी के साथ मिल कर ही हमेशा भठूरे बनवाए हैं. पता नहीं आज अकेले बनाऊंगी, तो कैसे बनेंगे,’’ शिखा का आत्मविश्वास डगमगा गया था.
अंजु आई ही आई, पर साथ में उस के दोनों बच्चे व पति भी लंच करने आ गए. अंजु ने एक बार शिखा को भठूरे बेलने व तलने की विधि ढंग से समझा दी और फिर किचन से गायब हो गई.
सब को छोलेभठूरों का लंच करातेकराते शिखा बहुत थक गई. राजीव को जब मौका मिलता रसोई में आ कर उस का हौसला बढ़ा जाता. जरूरत से ज्यादा थक जाने के कारण शिखा खुद अपने बनाए भठूरों का स्वाद पेटभर कर नहीं उठा सकी.
सदा बनसंवर कर रहने वाली शिखा ने अपने घर में कभी इतना ज्यादा काम नहीं किया था. उस दिन नीरजा के यहां इतना ज्यादा काम करने का उसे कोई मलाल नहीं था क्योंकि उस ने नीरजा की आंखों में अपने लिए ‘धन्यवाद’ के और राजीव की आंखों में गहरे ‘प्रेम’ के भाव बारबार पढ़े थे.
‘‘अगर नीरजा रात को रुकने के लिए कहे, तो रुक जाना. उस की अच्छी दोस्त बन जाओगी, तो हमें मिलने और मौजमस्ती करने के ज्यादा मौके मिला करेंगे,’’ राजीव की इस सलाहको शिखा ने फौरन मान लिया.
शाम को नीरजा की शह पर चारों छोटे बच्चों ने अपनी शिखा आंटी के साथ आइसक्रीम खाने जाने की रट लगा दी.
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