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निकलते-निकलते उसे वहीं देर हो गई. सुबह से उस का सिर भारी था, सोचा था घर जल्दी जा कर थोड़ा आराम करेगा पर उठते समय ही बौस ने एक जरूरी फाइल भेज दी. उसे निबटाना पड़ा. वैसे, यह काम रमेश का है पर वह धूमकेतु की तरह उदय हो दांत निपोर कर बोला, ‘‘यार, आज मेरा यह काम तू निबटा दे. मेरे दांत में दर्द है, डाक्टर को दिखाना है, प्लीज.’’

‘‘कट कर दे.’’

‘‘बाप रे, बुड्ढा कच्चा चबा जाएगा. आजकल वह कटखना कुत्ता बना है.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ उसे, वह ठीकठाक तो है?’’

‘‘कुछ ठीकठाक नहीं, सब गड़बड़ हो गया है.’’

‘‘क्या गड़बड़ है?’’

‘‘इस उम्र में उस की बीवी ठेंगा दिखा कर भाग गई.’’

‘‘हैं...’’

‘‘तभी तो बौखला कर अब हमारे ऊपर गरज रहा है.’’ रमेश निकल गया और संजीव लेट हो गया. पत्नी भारती और 10 वर्ष की बेटी चांदनी उस की प्रतीक्षा में थे. उसे देखते ही भारती चाय का पानी रखने गई. संजीव सीधा बाथरूम गया फ्रैश होने. एक गैरसरकारी दफ्तर में मामूली क्लर्क है वह. मामूली परिवार का बेटा है. उस के पिता भी क्लर्क थे. उस का जीवन भी मामूली है. मामूली रहनसहन, मामूली पत्नी, मामूली समाज में उठनाबैठना. पर वह अपने जीवन में संतुष्ट है, सुखी है. कारण यह कि उस की आशाएं, योजनाएं, मित्र सभी मामूली हैं. मामूली जीवन में फिट हो कर भी संजीव एक जगह ट्रैक से अलग हट गया है. वह है बेटी चांदनी का पालनपोषण. अपने वेतन की ओर ध्यान न दे कर, भारती की आपत्ति को नजरअंदाज कर उस ने बेटी को एक महंगे अंगरेजी माध्यम स्कूल में डाला है. उस का वेतन हाथ में आता है 7 हजार रुपए. इस महंगाई के जमाने में क्या होता है उस में. पर भारती अपनी मेहनत, सूझबूझ और सुघड़ता से बड़े सुंदर ढंग से घर चला लेती है. किसी प्रकार का अभावबोध पति या बेटी को नहीं होने देती. पुराना घर और साथ में चारों ओर छूटी जमीन संजीव की एकमात्र पैतृक संपत्ति है. किराया बचता है और खुली, बड़ी जगह में रहने का सुख भी है.

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