लेखिका- डा. सरस्वती अय्यर
दरवाजे पर तेज बजती घंटी की आवाज से विद्या की तंद्रा भंग हुई कि अरे 4 बज गए. लगता है वृंदा आ गई. विद्या जल्दी से उठ खड़ी हुई.
विद्या की शंका सही थी, दरवाजे पर वृंदा ही थी. विद्या की 17 साल की लाड़ली बेटी वृंदा. दरवाजे से अंदर आ कर अपना बैग रख कर जूते खोलते हुए वह चंचल हो गई, ‘‘अरे अम्मी आज स्टेट लैवल बैडमिंटन में मेरे सामने वाले खिलाड़ी की मैं ने ऐसी छुट्टी की न कि कुछ पूछो मत, मैं ने उसे सीधे सैट में हरा दिया. मेरी कोच बोल रही थीं कि अगर मैं ऐसे ही खेलती रहूंगी तो एक दिन नैशनल लैवल खिलाड़ी बनूंगी और वह दिन दूर नहीं जब बड़ेबड़े अखबारों में, टीवी चैनलों में मेरे फोटो आएंगे.’’
वृंदा की रनिंग कमैंट्री जारी थी. बैग को खोलते हुए उस में से बड़ी सी ट्रौफी निकाल कर वह विद्या से लिपट गई, ‘‘दिस ट्रौफी इज फौर माई डियर मौम,’’ और मौम के हाथ में ट्रौफी थमा कर बोली, ‘‘मम्मी खाना तैयार रखना बस मैं 2 मिनट में हाथमुंह धो कर कपड़े चेंज कर के आती हूं, जोर की भूख लगी है,’’ कहते हुए वह अंदर चली गई.
कार्निश पर ट्रौफी को रखते हुए विद्या की आंखें भर आईं. चुपचाप रसोई में जा कर गरम फुलके सेंक कर प्लेट में रोटीसब्जी रख कर उस ने खाना डाइनिंगटेबल पर रख दिया.
फ्रेश हो कर आई वृंदा ने 5 मिनट में खाना खा लिया और बोली, ‘‘मम्मा मैं 1-2 घंटे सो रही हूं, शाम को कैमिस्ट्री की क्लास है, मुझे जगा देना,’’ कह कर वह सोने चली गई.