लेखिका- लीला रूपायन
मेरी कोठी की तीसरी मंजिल की बरसाती आज एक फ्लैट का रूप ले चुकी है. यह वही छत है जिस पर मैं अपना बोनसाई गार्डन प्लान कर रही थी पर कभी बनाया नहीं था. मैं वहां किसी को पांव नहीं रखने देती थी, इसलिए कि यह अपनी खूबसूरती न खो बैठे. आज उसी के एक तरफ मैं ने एक छोटा सा फ्लैट, इस को मैं ने खुद पास खड़े हो कर बनवाया है. सुषमा से मैं ने कितनी बार पूछा था, ‘‘सुषमा, तू भी तो कुछ बता, इस में कोई और काम करवाना हो तो? वरना जब मिस्त्री लोग चले जाएंगे तो कुछ भी नहीं हो सकेगा.’’
‘‘बस, मैडम, बहुत हो गया. कहां हम लोग झुग्गीझोंपड़ी में खस्ताहाल जीवन जीने वाले और कहां आप ने अपने घर की छत पर मेरे लिए कमरा बनवा दिया,’’ वह हाथ जोड़ कर बोली थी.
‘‘हाथ मत जोड़ा कर, सुषमा, मैं ने कितनी बार कहा है. यह तो मेरे लिए खुशी की बात है कि मुझे तुझ जैसी नेक, रहमदिल, समझदार साथिन मिली. नरक तो मैं भुगत रही थी. अगर तू मेरे जीवन में न आती तो ये महकी हुई बहारें मेरे जीवन में कहां से आतीं?’’ मैं ने सुषमा के हाथ पकड़ लिए थे.
‘‘आप तो मुझे शर्मिंदा करती हैं, मैडम. मैं ने ऐसा क्या किया है आप के लिए? बाकी सब बात छोडि़ए, इन हाथों से आप की सेवा तक नहीं कर पाई,’’ सुषमा नतमस्तक हो गई थी.
‘‘तू कभी नहीं जान सकेगी, सुषमा कि तू ने मेरे लिए क्या किया है, और जब जान जाएगी तो उसे छोटी सी बात कह कर तू उस का महत्त्व कम कर देगी. बस, अब तो यही वादा कर कि तू मुझे छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी. मेरी बात को गलत मत समझना, सुषमा. तू अपने कर्तव्य को पूरी तरह निभाएगी, उस के लिए तू स्वतंत्र है. अब तो मैं भी तेरे साथ हूं न,’’ मैं ने हंसते हुए उस के कंधे पर हाथ रख दिया था.
‘‘मेरी दुनिया में और है ही कौन, मालकिन. न बालबच्चा, न पति. न पीहर, न ससुराल. किसी की झोंपड़ी में किराया दे कर रहती थी. सारे दिन की मेहनतमजदूरी कर के वापस आ कर वहां पड़ जाती थी. बस, इसी तरह जिंदगी की गाड़ी खिंच रही थी. न जाने कैसे आप के पांवों तक पहुंच गई. अब आप के कदमों में प्राण निकल जाएं, बस यही इच्छा है. चार बालिश्त कफन तो मिल जाएगा. झुग्गीझोंपड़ी में मरती तो पासपड़ोस वाले पुलिस की गाड़ी में मेरी लाश अस्पताल में चीरफाड़ के लिए भेज देते. जिन्हें एक जून पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता, वे कहां से मेरे लिए लकड़ी का जुगाड़ करते?’’ सुषमा की आंखें भर आई थीं.
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18 साल पहले मेरी खुद की शादी हुई थी. अच्छे खातेपीते परिवार में डोली से जब उतरी थी तो अपनेआप से स्वयं ही वह ईर्ष्या करने लग गई थी. मांबाप की खुशी का ठिकाना ही नहीं था. उन्होंने कभी सपने में भी न सोचा होगा कि उन की बेटी इस तरह राजरानी बन जाएगी.
जैसे ही मैं ने बीए किया था, पिताजी ने आगे पढ़ाने से इनकार कर दिया था. मैं ने नौकरी के लिए हाथपांव मारने शुरू कर दिए थे, ताकि घर के खर्चों में हाथ बंटा सकूं. वह किसी भी तरह का काम करने को तैयार थी. भले ही वह ट्यूशन हो या कोई और छोटामोटा काम. जैसे ही पता चलता कि अमुक जगह काम मिल सकता है, वह वहां जा कर हाथ पसार कर खड़ी हो जाती. कितने ही दिन ठोकरें खाने के बाद जब सफलता मिली तो ऐसे रूप में कि नौकरी तो मिली ही, बाद में पति भी मिल गया.
एक दिन मेरे पिता ने ही कहा था, ‘हमारे डायरैक्टर के कोई रिश्तेदार हैं. उन का अपना व्यापार है. उन्हें एक कंप्यूटर औपरेटर की जरूरत है. तू तो कंप्यूटर भी सीख रही है, बेटी. मैं ने डायरैक्टर से आग्रह तो किया है. अगर वे सिफारिश कर देंगे तो शायद यह नौकरी तुम्हें मिल जाए. तुम दफ्तर में काम कर सकोगी?’
‘हां, पापा, जरूर करूंगी,’ मैं ने बड़े विश्वास से कहा.
सेठजी ने पत्र दे दिया था. जब उस फर्म के मालिक ने उस पत्र को पढ़ा था तो मुझे सिर से ले कर पांवों तक गौर से देखा था. जैसे मुझे तौला जा रहा हो, इतनी छोटी उम्र में मैं क्या नौकरी कर सकूंगी? जाने वह कैसी दृष्टि थी जिसे मैं सहन नहीं कर पा रही थी. और मेरी आंखें जमीन की ओर झुकती ही चली गई थीं. तभी मेरे कानों में उन की गंभीर आवाज पड़ी थी, ‘बहुत जरूरत है इस नौकरी की?’
‘जी हां,’ मैं ने डरतेडरते कहा था.
‘घर में और कौन है कमाने वाला?’
‘केवल मेरे पापा. हम 3 भाईबहन हैं. सब से बड़ी मैं ही हूं. पापा के वेतन से घर का पूरा खर्चा नहीं चलता. इसी लिए मेरी पढ़ाई भी रुक गई है. आप मुझे यह नौकरी दे देंगे तो मेरे पापा की बहुत सहायता हो जाएगी,’ मेरी आवाज भय से कांप रही थी.
‘तुम जानती हो यहां देर तक काम होता है. इसीलिए ज्यादा पुरुष हैं. इतने पुरुषों में काम कर सकोगी? देर हो जाने पर डरोगी तो नहीं?’
‘जी नहीं. आदमी अपने चरित्र पर दृढ़ रहे, कर्तव्य का बोझ कंधों पर हो तो उसे किसी से डर नहीं लगता. मैं आप को वचन देती हूं, मैं आप का काम लगन और ईमानदारी से करूंगी. आप को मुझ से कभी कोई शिकायत नहीं होगी,’ मैं ने दृढ़ता से कहा था.
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‘ठीक है, तुम कल से आ सकती हो,’ और उन्होंने अपने अधीनस्थ कर्मचारी को बुला कर कहा था, ‘यह अचला है. कल से इन की मेज इसी कमरे के बाहर करनी होगी. मुझे उम्मीद है यह मेरा काम संभाल लेगी.’
मुझे वह नौकरी मिल गई थी. आमतौर पर मैं सलवारसूट या साड़ी पहनती थी. एक दिन टौप व जींस पहन कर गई थी तो उन्होंने यह कह कर मुझे दफ्तर से वापस भेज दिया, ‘ऐसा लिबास पहन कर आया करो जिस में गंभीर और शालीन नजर आओ. ऐसा नहीं कि सब लोगों के लिए तुम तमाशा बन जाओ.’
‘साड़ी एक ही थी, छोटी बहन पहन कर कालेज फंक्शन में गई. सलवारकमीज के दोनों जोड़े धुलने गए थे इसीलिए,’ मैं घबरा गई थी.
‘जाओ, कैशियर से एडवांस ले लो और एक और साड़ी खरीद लो. मुझे उम्मीद है भविष्य में तुम हर बात का ध्यान रखोगी. मुझे सस्तापन बिलकुल पसंद नहीं,’ और मुझे एडवांस देने के लिए उन्होंने कैशियर को टैलीफोन कर दिया था.
फिर मैं ने उन्हें शिकायत का कभी मौका नहीं दिया था. मैं बड़ी लगन और मेहनत से काम करती थी. वे मेरा काम देखते और मुसकरा देते. इस से मेरा उत्साह बढ़ जाता.
उन का नाम हर्ष था. वे मेरे काम से इतने खुश थे कि अब वे कई कामों में मेरी सलाह भी ले लेते थे. उन के मोबाइल का नंबर सेव रहता था मेरे दिल में. घर में एक ही मोबाइल था जिसे सब इस्तेल करते थे. हमारे बीच चुप्पी की वह दीवार न जाने कब गिर गई थी जो नौकर और मालिक के बीच होती है. कई बार वे हंस कर कहते, ‘अचला, तुम तो अब मेरी सलाहकार हो गई हो, और सलाहकार अच्छे दोस्त भी होते हैं.’
मेरे सुखदुख और जरूरत का वे हमेशा ध्यान रखते थे. एकदो बार मुझे वे अपने घर भी ले गए थे. वहां उन की मम्मी का मुझे भरपूर स्नेह मिला था. वे ब्लडप्रैशर की मरीज थीं, लेकिन बहुत हंसमुख थीं और यह महसूस ही नहीं होने देती थीं कि वे बीमार हैं.
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