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यूनिवर्सिटी का बड़ा हौल गणमान्य व्यक्तियों से खचाखच भर चुका था. मैडिकल काउंसिल के उच्च पदाधिकारी मंच पर पहुंच अपनी सीटें ग्रहण कर चुके थे. अपने ओहदे के अनुसार अन्य मैंबर्स भी विराजमान हो चुके थे. एक तरफ छात्रछात्राओं के अभिभावकों के बैठने के लिए बनी दीर्घा लगभग पूरी भर चुकी थी, तो दूसरी तरफ छात्र अपनी वर्षों की पढ़ाई को डिगरी के रूप में प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षारत बैठे थे. मुख्य अतिथि के समापन भाषण के पश्चात अन्य पदाधिकारियों ने कुछ शब्द कहे, फिर मैरिट प्राप्त स्टूडैंट्स के नाम एक के बाद एक बुलाने प्रारंभ किए गए. स्मिता अभिभावकों वाली दीर्घा में बैठी उत्सुकता से अपनी बेटी पलक का नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा कर रही थी.

आज यह उस के जीवन का तीसरा अवसर था कनवोकेशन अटैंड करने का. पहला अवसर था अपनी एम.एससी. की डिगरी लेने का, दूसरा था अपने पति डा. आशुतोष राणा के एम.एस. की डिगरी लेने का समारोह और तीसरा आज, जिस में वह अपनी बेटी पलक को एम.बी.बी.एस. की डिगरी लेते देखेगी.

पति की याद आते ही उस का मुंह कसैला हो उठा था. लेकिन विगत की यादों को झटक कर वह वर्तमान में लौट आई. इस चिरप्रतीक्षित पल को वह भरपूर जीना चाहती थी. आखिर वह घड़ी भी आ ही गई. मंच पर अपनी बेटी पलक को गाउन पहने अपनी डिगरी ग्रहण करते देख स्मिता की आंखें खुशी से भर आईं. बेटी का सम्मान उसे अपना सम्मान लग रहा था. उस के जीवन की डाक्टर बनने की अधूरी इच्छा आज उस की बेटी के माध्यम से पूरी हो सकी थी. सच ही तो है, इंसान जो सपने अपने जीवन में पूरे न कर सका हो, उन्हें अपने बच्चों के माध्यम से साकार करने की चेष्टा करता है.

समारोह समाप्त होने के बाद हौल से बाहर आ कर पलक अपने जानने वालों के साथ कुछ आवश्यक बातचीत करने व कुछ अन्य कामों की वजह से रुक गई और स्मिता घर लौट आई.

घर आ कर भी स्मिता का मन वहीं भटकता रहा. आज इतने स्टूडैंट्स के बीच में स्वयं को पा कर उसे अपने कालेज के दिन याद आने लगे थे. एम.एससी. के इम्तिहान खत्म होने के पश्चात होस्टल से जाते समय सब लड़कियां एकदूसरे के पते ले कर व भविष्य में मिलने का वादा कर अपनेअपने घर लौट गई थीं. स्मिता भी आगे रसायनशास्त्र में डाक्टरेट करने का सपना संजोए घर लौट आई थी. उस ने पीएच.डी. के लिए रजिस्ट्रेशन कराने की कोशिश भी की किंतु किसी कारणवश बात नहीं बन सकी. उन्हीं दिनों शहर के एक डिगरी कालेज में जब उसे लैक्चररशिप मिल गई तो उसे कुछ संतोष मिला. पर साथ ही शोधकार्य करने के लिए भी वह प्रयासरत रही.

पर शायद वक्त को तो कुछ और ही मंजूर था. उस का विवाह डा. आशुतोष राणा के साथ कुछ ही दिनों बाद तय हो गया व शीघ्र ही विवाह भी हो गया. विवाह के पश्चात एक नया शहर, नया माहौल व नई चुनौतियां थीं. किसी भी निर्णय में अब केवल उस की इच्छा ही नहीं, पति की सहमति भी आवश्यक हो गई थी.

उस के नौकरी करने या शोधकार्य पूरा करने की इच्छा को उन्होंने तुरंत नकारा तो नहीं, परंतु अपनी सहमति इनकार के आवरण में ही लपेट कर देते हुए कहा, ‘‘तुम्हें जरूरत क्या है नौकरी करने की. मैं इतना तो कमा ही लेता हूं कि कोई अभाव न महसूस हो. केवल पैसे कमाने के लिए नौकरी करना किसी जरूरतमंद की जीविका पर कुठाराघात करना होगा. मेरी एम.एस. की पढ़ाई चल ही रही है. ऐसे में तुम भी अपनी पढ़ाई में लग गईं तो घर कौन संभालेगा? आगे तुम खुद समझदार हो, जैसा चाहो करो.’’

उस ने समझदारी दिखाते हुए इस विषय को फिर कभी नहीं उठाया. इतनी पढ़ाई कर के खाली बैठना उसे बेहद नागवार लगता था, लेकिन परिवार की खुशी उस के सपनों से कहीं बड़ी थी. शैक्षिक योग्यता का अर्थ केवल पढ़ाई कर के डिगरी प्राप्त करना ही नहीं वरन एक मानसिक स्तर का निर्माण भी होता है, जो जीवन को बेहतर ढंग से जीने व समझने का नजरिया देता है. वक्त का खालीपन तो इंसान अन्य विकल्पों से भी भर सकता है.

उसे अकसर अपनी दादी की कही बातें याद आ जातीं, ‘बिटिया, चाहे एम.एससी. करो या डाक्टरी… लड़की हो तो आगे घरगृहस्थी तुम्हीं को चलानी होगी. थोड़े घर के कामकाज भी सीखो.’

और वह उन्हें चिढ़ाती हंसती हुई कहती थी, ‘न दादी… मैं तो डाक्टर बनूंगी और नौकर रख लूंगी. सब काम हो जाया करेंगे.’

‘अरी, नौकरों से भी तो काम तभी कराएगी जब तुझे खुद कुछ आएगा. वरना जैसा कच्चापक्का खिला देगा, खाती रहना.’

अतीत की यादें कभीकभी कितनी सुखद लगती हैं. बड़ेबुजुर्गों की बातों में भी कितना गूढ़ जीवनसार होता है. जिंदगी फिर पति की पसंदनापसंद, चूल्हेचौके व घरगृहस्थी तक ही सिमट कर रह गई थी. डेढ़ साल में ही आशुतोष ने अपनी एम.एस. की पढ़ाई पूरी कर ली व स्मिता की गोद में पलक आ गई थी. फिर तो जैसे उस का वक्त पंख लगा कर उड़ने लगा. हर दिन एक नई खुशी ले कर आता. आज पलक ने मां बोला, आज घुटनों के बल चली, आज पहला कदम रखा. दिन, महीने, साल पलक की किलकारियों के साथ ही बढ़ते रहे. उन्हीं दिनों आशुतोष को सरकार की तरफ से विभागीय स्पैशल ट्रेनिंग लेने 5-6 डाक्टरों के एक ग्रुप के साथ, साल भर के लिए यूएसए जाने का अवसर मिला. परंतु वहां अपने साथ परिवार नहीं ले जा सकते थे, इसलिए पहले तो आशुतोष ने जाने से मना करना चाहा पर स्मिता द्वारा प्रोत्साहित करने पर जाने को सहमत हो गया. पत्नी व बेटी को अपने मातापिता के पास पहुंचा कर व अन्य जरूरी व्यवस्थाएं कर के वह अपने ग्रुप के साथ विदेश चला गया.

स्मिता की ससुराल में 2-3 वर्ष में रिटायर होने वाले बैंक में कार्यरत ससुर दीनानाथ व सास उमा देवी के अतिरिक्त किशोरवय का देवर अभिजीत भी था. अभी तक तो वह पति के साथ तीजत्योहार पर 2-4 दिन के लिए ही पहुंचती थी, अब सब के साथ रहने का अवसर मिलने पर उसे सब को करीब से जानने का मौका मिला था. परस्पर सौहार्दपूर्ण व अपनेपन भरे व्यवहार से शीघ्र ही सब लोग घनिष्ठ हो गए थे. पिता समान ससुर का मधुर व्यवहार, सरल स्वभाव की सास व विनोदप्रिय देवर के सान्निध्य में स्मिता अपनी हर चिंता से बेपरवाह नन्ही सी बेटी पलक के साथ आशुतोष का इंतजार करती आराम से रह रही थी.

कभी स्मिता आशुतोष की याद में उदास होती तो अभिजीत तुरंत भांप कर अपने चुटकुलों व हंसीमजाक से उसे हंसा देता.

मासूम पलक को तो सब हाथोंहाथ लिए रहते थे. स्मिता ने वहां आ कर घर का सारा काम स्वयं संभाल लिया था.

कभीकभी सास हंसती हुई कह भी देतीं, ‘‘बेटी स्मिता, तुम तो मेरी आदत ही खराब कर दोगी. कल को आशु आ जाएगा तो तुम चली जाओगी, तब कौन करेगा?’’

स्मिता हंसते हुए कहती, ‘‘मैं कहां जा रही हूं मां… मैं तो उन से भी कह दूंगी यहीं पर अपनी प्राइवेट प्रैक्टिस शुरू करें, वह खूब चलेगी. नहीं तो आप सब को भी वहीं बुला लूंगी.’’

भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, कौन जान सका है? क्रूर वक्त की हंसी तब कहां सुन सकी थी वह.

कुछ ही दिनों बाद अभिजीत की वार्षिक परीक्षाएं आरंभ होने वाली थीं. स्मिता उस का पूरा ध्यान रखती थी. देर रात उठ कर उसे चाय या कौफी बना कर देती तो कभी कोई कठिन प्रश्न हल कराती. पढ़तेपढ़ते उस के सो जाने पर उस की किताब बंद कर के रखती. अभिजीत ने स्मिता को हर वक्त, हर रूप में अपना मददगार पाया. इन 10-15 दिनों में जितना वह अपनी भाभी को समझता गया, उस के मन में उन के प्रति इज्जत उतनी ही बढ़ती गई. सब से ज्यादा राहत उसे स्मिता के पढ़ाने से मिली. उस का पढ़ाया हुआ अभिजीत को तुरंत समझ में आ जाता था. अब यदाकदा उस के अन्य मित्र भी अपनी प्रौब्लम्स पूछने आने लगे थे.

इंटर का रिजल्ट निकला तो अभिजीत ने पूरे कालेज में टौप किया था. अपनी सफलता का पूरा श्रेय स्मिता को देते हुए उस ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, आज आप के कारण ही मैं इतने अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो सका हूं. मुझे तो रसायनशास्त्र मुश्किल विषय लगता था, पर आप के बताए टिप्स व पढ़ाने के ढंग ने मुझे इसी में सब से ज्यादा नंबर दिलाए हैं.’’

इतना मानसम्मान पा कर स्मिता अभिभूत हो उठी थी, ‘‘मेहनत तो आप ने ही की है… हम तो बस आप के साथ ही खड़े थे. सब कुछ बड़ों के मार्गदर्शन से ही संभव हुआ है. अब आप मांबाबूजी से भी मिल आइए. कंपीटिशन में भी अब इसी तरह अव्वल आना है, तभी बात बनेगी.’’

‘‘बस, अभी आया भाभी. वैसे आप को तो कहीं टीचर होना चाहिए था. मेरे कालेज के कई स्टूडैंट्स आप से ट्यूशन लेना चाहते हैं,’’ बाहर जाता हुआ अभिजीत तो कह कर चला गया पर स्मिता की दुखती रग छेड़ गया.

स्मिता ने तो इस विषय में फिर कोई बात नहीं की पर अभिजीत चुप नहीं बैठा. उस ने घर में यह बात मांबाबूजी की उपस्थिति में फिर उठाई तो स्मिता को यह जान कर सुखद आश्चर्य हुआ कि कोई भी उस के नौकरी करने के विरुद्ध नहीं था. किंतु वह तो जानती थी कि आशुतोष को यह पसंद नहीं आएगा. उसे लौटने में अब 3-4 महीने ही शेष थे, फिर कौन सा उसे हमेशा यहीं रहना था. आखिर पति की पोस्टिंग की जगह ही तो उसे भी जाना होगा. फिर व्यर्थ में ऐसा कार्य क्यों करे, जिस से आगे विवाद की स्थिति उत्पन्न हो.

लेकिन सब के बहुत कहने पर, उस ने सोचविचार कर 2-3 स्टूडैंट्स को घर पर ही पढ़ाने के लिए बुलाना आरंभ कर दिया, जिस से उस का खाली समय तो अच्छी तरह कटता ही था, साथ ही अतिरिक्त आय से अधिक अपनी विद्या के सदुपयोग का दिली सुकून मिलता था. देखते ही देखते आने वाले विद्यार्थी 2-3 से बढ़तेबढ़ते 10-12 हो गए. उस ने कुछ ही महीनों में इतनी आय अर्जित कर ली कि अपनी सास के जन्मदिन पर उसी से एअरकंडीशनर खरीद कर उन्हें बतौर तोहफा दिया, तो सब की आंखों में उस के लिए प्रशंसा के भाव भर उठे थे.

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