धीरे-धीरे आशुतोष के आने का वक्त भी करीब आता जा रहा था, पर इधर उस के फोन काल्स हर हफ्ते 3-4 बार आने के बजाय 10-15 दिन में आने लगे थे. देर से फोन करने का उलाहना देने पर कभी वह बिजी होने की बात बता देता तो कभी झुंझला पड़ता. पर स्मिता इंतजार करने के अतिरिक्त कर भी क्या सकती थी? इंतजार की घडि़यां जब समाप्ति के नजदीक होती हैं तो और लंबी लगने लगती हैं. घर में सब 2-4 दिन में ही आशुतोष के वापस आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, पर फोन से बात होने पर उस ने बताया कि उस ने सरकार से अपने लिए फिर 1 वर्ष का ऐक्सटैंशन मांगा है.
‘‘पर क्यों?’’ स्मिता किंचित रोष व उलझन भरे स्वर में पूछे बिना न रह सकी थी.
‘‘स्मिता, मैं तो आना चाहता हूं, पर यहां हर वह सुविधा उपलब्ध है, जो वहां इंडिया में मेरे डिपार्टमैंट में नहीं है. मैं कोशिश कर रहा हूं कि यहां कहीं अच्छी जौब भी ढूंढ़ लूं. इस बीच यदि मुझे ट्रेनिंग का 1 साल और मिल जाता है, तो अच्छा ही है. आगे का बाद में प्लान करेंगे. तुम वहां मांबाबूजी के पास हो ही… कोई चिंता की बात तो है नहीं.’’
इस के बाद थोड़ी देर पलक व घर के अन्य सदस्यों से बात कर के आशुतोष ने फोन काट दिया. स्मिता को लगा मानो उस की किश्ती किनारे आतेआते पुन: लहरों के थपेड़ों से दूसरे किनारे जा पहुंची है. 1 वर्ष और यानी पूरे 365 दिन. उसे समझ नहीं आ रहा था इतना लंबा समय वह कैसे काटेगी. पर हकीकत तो यही थी और उसे स्वीकारना उस की मजबूरी. अनमनी सी वह अपनेआप को कामों में व्यस्त रखने का उपक्रम करती रही.
जिंदगी एक बार फिर उसी पुरानी रफ्तार से चल पड़ी थी. ट्यूशन पढ़ने वालों की संख्या भी बढ़ती गई. एक दिन कालेज के प्रिंसिपल ने स्मिता को कुछ जरूरी बात करने के लिए फोन कर के बुलाया. विज्ञान के अध्यापक के अचानक चले जाने से वह पद रिक्त पड़ा था. वहां के विद्यार्थियों के अनुरोध पर ही उन्होंने स्मिता को कालेज में लैक्चररशिप के लिए प्रस्ताव दिया था. पति के आने में अभी तो पूरा साल पड़ा था. जब घर बैठे ही इतना अच्छा अवसर मिल रहा था, तो उसे गंवाने का कोई औचित्य भी नजर नहीं आता था. घर में बड़ों की अनुमति से उस ने वह औफर स्वीकार कर लिया. फिर जल्दी ही वह सब की प्रिय अध्यापिका बन गई. उस का पढ़ाने का तरीका ही ऐसा था कि किसी को अलग से ट्यूशन की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती थी.
स्मिता ने अपने कैरियर व घरेलू जिम्मेदारियों के बीच सही तालमेल बैठाते हुए पलक का भी प्रीनर्सरी में ऐडमिशन करा दिया था. उन्हीं दिनों अभिजीत का इंजीनियरिंग में चयन हो जाने से वह रुड़की चला गया. कालेज का खुशनुमा माहौल, व्यस्त दिनचर्या एवं एक सहअध्यापिका अंजलि से अच्छी जानपहचान हो जाने से स्मिता का वक्त अच्छा कटने लगा था. अंजलि के पति डा. सुनील बहल भी आशुतोष के साथ ही अमेरिका गए थे. वे अवधि पूरी होने पर लौट आए थे. अंजलि व स्मिता अकसर एकदूसरे से अपने दिल की बातें करती रहती थीं. जल्दी ही उन में गहरी दोस्ती हो गई.
एक दिन बातों ही बातों में अंजलि ने झिझकते हुए पूछा, ‘‘स्मिता, एक बात पूछूं… बुरा तो नहीं मानोगी?’’
‘‘अरे पूछो न… भला तुम्हारी बात का क्यों बुरा मानूंगी.’’
‘‘सब लोग वापस आ गए हैं पर डा. राणा वहीं क्यों रुक गए?’’
‘‘दरअसल, वहां उन्हें कुछ और काम करना था. उन्होंने सरकार से 1 साल का ऐक्सटैंशन और मांगा है.’’
स्मिता के सहज ढंग से कहे गए उत्तर से अंजलि आश्वस्त नहीं हुई. स्मिता को लगा वह कुछ कहना चाह रही है, परंतु संकोचवश कह नहीं पा रही.
आखिर उस ने ही पूछा, ‘‘तुम कुछ परेशान लग रही हो? क्या बात है?’’
‘‘पता नहीं मुझे कहनी चाहिए या नहीं… पर तुम तो मेरी दोस्त हो इसलिए तुम्हें अंधेरे में नहीं रखना चाहती हूं,’’ अंजलि हर शब्द तोलतोल कर कह रही थी.
उस के बोलने की संजीदगी से स्मिता का हृदय आशंका से धड़कने लगा था. शंकाएं नागफनी की तरह सिर उठाने लगी थीं. वह धीरे से केवल यही पूछ सकी, ‘‘कुछ कहो तो…’’
‘‘वहां मेरे पति सुनील डा. राणा के रूममेट थे. वे कह रहे थे कि डा. राणा की उसी इंस्टिट्यूट की एक अमेरिकन रिसर्च स्कौलर से कोर्टशिप चल रही थी और शायद जल्दी ही…’’
बीच में ही उस की बात काटती स्मिता बोल उठी, ‘‘नहींनहीं, ऐसा कुछ नहीं हो सकता. जरूर डा. बहल को कोई गलतफहमी हुई होगी. आशु तो हम सब को बहुत प्यार करते हैं… भला वे ऐसा क्यों करेंगे?’’
‘‘हो सकता है तुम्हारी बात ही सच हो. पर तुम्हें आगाह करना मैं ने अपना फर्ज समझा… तुम बुरा न मानना,’’ उस ने पुन: क्षमायाचना करते हुए कहा.
उस दिन स्मिता मन ही मन बेहद चिंतित हो उठी थी. पति द्वारा किए जाने वाले फोन काल्स में बढ़ता समय अंतराल, संक्षिप्त होती जा रही बातचीत, बात करने का ढंग, सभी कुछ कहीं न कहीं अंजलि की बात का ही तो समर्थन करता प्रतीत हो रहा था. मांबाबूजी को वह क्या बताती? अभी तो वही उस बात पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. उस ने निश्चय कर लिया था कि रात में वह स्वयं आशुतोष से इस विषय पर बात करेगी. या तो वह पैसा कमाने की धुन छोड़ कर यहीं आ जाए या उसे व पलक को भी वहीं बुला ले. समस्याओं का कुछ हल सूझता दिखा तो मन कुछ शांत हुआ. डा. सुनील को जरूर कोई गलतफहमी हुई होगी. मेरे साथ इतना बड़ा विश्वासघात नहीं हो सकता. व्यर्थ ही मैं मन में शक पाल रही हूं.
सारे काम निबटा कर उस ने कई बार फोन मिला कर बात करनी चाही पर आशंका से कांपती उंगलियों से डायल करना उस दिन उसे अत्यंत दुरूह लग रहा था. यदि अंजलि की बात सच निकली तो…? अजीब ऊहापोह की स्थिति हो रही थी. आखिर दिल कड़ा कर के उस ने आशुतोष का मोबाइल नंबर डायल कर ही दिया. उधर रिंग जा रही थी मगर फोन उठ नहीं रहा था. तभी उसे ध्यान आया यहां तो रात है मगर वहां तो अभी दिन होगा. हो सकता है कि आशुतोष काम पर जाने के लिए तैयार हो रहे हों.
वह फोन काटने ही वाली थी कि तभी उधर से किसी स्त्री का अमेरिकन लहजे में स्वर उभरा, ‘‘येस… रिया फर्नांडिस हियर…’’
‘‘सौरी,’’ कह कर स्मिता ने तुरंत फोन काट दिया. शायद घबराहट में वह गलत नंबर डायल कर गई थी. पर चैक किया तो देखा नंबर तो सही डायल हुआ था. पर यह रिया फर्नांडिस कौन है? इतनी सुबह आशुतोष के पास क्या कर रही होगी? उस ने फिर फोन किया. इस बार उसे अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा.
उधर से आशुतोष की आवाज आई, ‘‘हैलो… कौन स्मिता?’’
‘‘हां… मैं ने पहले भी मिलाया था. किसी रिया ने…’’
‘‘ओ हां, उसी के यहां तो मैं पेइंग गैस्ट की तरह रह रहा हूं. तुम्हें बताने ही वाला था आजकल में…’’
‘‘मगर बिजी होंगे… है न? 15-20 दिन हो गए हैं आप का फोन आए. क्या बात है? पुराना होस्टल क्यों छोड़ दिया?’’
‘‘असल में मैं ने इंडियन गवर्नमैंट से जो
1 साल का ऐक्सटैंशन मांगा था वह उन्होंने मंजूर नहीं किया है. इसलिए मैं ने वह नौकरी छोड़ दी और यहां पार्ट टाइम जौब ढूंढ़ ली है. वह होस्टल छूटा तो अपने ही साथ रिसर्च कर रही एक दोस्त के यहां मैं बतौर पेइंग गैस्ट रहने लगा हूं.’’
‘‘तो मुझे व पलक को भी वहीं बुला लीजिए,’’ स्मिता से रहा न गया, अधीरतावश वह यह कह ही बैठी.
‘‘कम औन स्मिता… यहां मेरे रहने का ठिकाना नहीं है, तुम दोनों को कहां रखूंगा? थोड़ा सब्र करो… तुम दोनों को बाद में बुलाऊंगा,’’ उधर से झुंझलाया हुआ स्वर स्मिता के कानों से टकराया. पर वह भी आसानी से मानने वाली नहीं थी.
‘‘मैं भी वहां पार्ट टाइम जौब कर लूंगी फिर कोई दिक्कत नहीं होगी. हम लोग किस्तों पर कोई छोटा सा मकान ले लेंगे. आप अपना पता बता दें, मैं स्वयं आ जाऊंगी… या आप बुलाना ही नहीं चाहते?’’
‘‘कोई खेल है अमेरिका चले आना? वीजा बनवाना पड़ता है, पासपोर्ट बनता है… फिर पैसा चाहिए टिकट के लिए.’’
‘‘आप उस की चिंता न करो. मैं ने सब चीजें अपटूडेट करा रखी हैं. टूरिस्ट वीजा भी बन जाएगा. आप के भेजे पैसों में से भी मैं ने काफी बचत की हुई है और मैं भी अब डिग्री कालेज में लैक्चरार हो गई हूं,’’ फिर उस ने संक्षेप में पूरी बात आशुतोष को बता दी, मगर उस से कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया न पा कर उसे आश्चर्य नहीं हुआ.
‘‘ठीक है, फिर तुम अपनी जौब में ध्यान लगाओ. मैं बाद में तुम्हें फोन करूंगा, अभी तो मुझे अस्पताल पहुंचने की जल्दी है,’’ कह कर बगैर प्रतीक्षा किए उस ने फोन काट दिया.
स्मिता चाह कर भी आशुतोष से कुछ नहीं पूछ सकी. रिश्तों की नजाकत उस के होंठ सिए थी पर मन था कि शक के थपेड़ों से लहूलुहान हुआ जा रहा था. मानव स्वभाव है कि अंत तक आशा का दमन नहीं छोड़ना चाहता. उस ने भी खुद को समझा कर शांत करने का प्रयास किया कि लोगों का क्या है, दूसरों को हंसताबोलता देख कर कुछ भी अनुमान लगा लेते हैं. आशुतोष एक अच्छे, पढ़ेलिखे व जिम्मेदार व्यक्ति हैं. वे ऐसा कोई अशोभनीय कदम नहीं उठाएंगे. उसे खुद पर मन ही मन कुछ ग्लानि भी हुई. वह तो फिर भी यहां पूरे परिवार के साथ है, वहां परदेश में उन का कौन है… यदि दोस्त से हंसबोल लेते हैं तो कौन सा गुनाह कर दिया? उसे मन में संदेह नहीं लाना चाहिए था. जरूर डा. सुनील गलत समझे हैं. यही सब सोचते, पलक को थपकियां दे कर सुलाते वह स्वयं भी निद्रा के आगोश में चली गई.
सुबह सो कर उठी तो मन फूल सा हलका लग रहा था. अंजलि की बातों से उपजी चिंता पति से बात करने पर काफी हद तक दूर हो गई थी. व्यर्थ के विचार मन से झटक वह स्वयं को अधिक तरोताजा महसूस कर रही थी और सोच रही थी कि अंजलि को भी सब कुछ ठीक होने का विश्वास दिला देगी.
क्लास में लैक्चर देने के बाद वह स्टाफ रूम में जब थोड़ी फुरसत में अंजलि से मिली, तो उस के कुछ कहने से पहले ही अंजलि ने एक पता लिखा कागज उस की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘स्मिता, यह पता उसी दोस्त का है, जहां डा. राणा अकसर होस्टल छोड़ कर रहने चले जाते थे. सुनील वहां से आते समय पता ले आए थे.’’
धड़कते दिल से स्मिता ने कागज ले लिया. पता रिया फर्नांडिस का ही था. उस ने कागज संभाल कर पर्स में रख लिया. आशुतोष तो अपना पता बताना टाल गया था पर आखिर स्मिता को वह कहीं न कहीं से मिल ही गया. उस ने पिछली रात पति से हुई बातचीत अंजलि को बताई कि उन्होंने रिया के घर शिफ्ट कर लेने की बात स्वयं फोन पर बताई थी. मन में चोर होता तो क्यों बताते? वह तरहतरह से अंजलि को विश्वास दिलाती रही कि वैसा कुछ नहीं होगा, जैसा कि वे लोग सोच रहे हैं. अगले वर्ष वे लौट ही आएंगे या उसे ही वहां बुला लेंगे. पर शायद अंजलि से ज्यादा वह स्वयं को सब कुछ सामान्य होने का विश्वास दिलाना चाह रही थी.
आशुतोष से बात हुए पूरा महीना निकल गया. स्मिता व घर वालों ने कई बार फोन मिलाया पर हर बार ‘मोबाइल का स्विच औफ है’ की कंप्यूटर टोन आती रही या फोन मिलते ही काट दिया जाता था. आशुतोष ने पलट कर कभी फोन नहीं किया, जिस से स्मिता के मन में पुन: शक की नागफनी उगने लगी. उस ने दबी जबान से अपनी सास को सारी बातें बता दीं. घर में मां व बाबूजी भी आशुतोष में आए परिवर्तन को महसूस कर रहे थे. आखिर इस विषय में विचारविमर्र्श कर के सर्वसम्मति से तय किया गया कि स्मिता व पलक के लिए टिकट व वीजा वगैरह का इंतजाम वे लोग करवा देंगे. पता मिल ही गया है, अत: अब अधिक देर न कर उन दोनों को वहां चले जाना चाहिए. फिर सब धीरेधीरे ठीक ही हो जाएगा. शायद बेटी का मुंह देख कर उन के बेटे के बहकते कदम ठीक राह पर आ जाएं. अभिजीत ने बाबूजी के साथ दौड़धूप कर के सारे पेपर्स पूरे करा टिकट स्मिता के हाथों में थमा दिया.