मम्मी की मृत्यु के बाद पिताजी बहुत अकेले हो गए थे, रचिता के साथ राहुल मेरठ पहुंचा, तेरहवीं के बाद बच्चों का स्कूल और अपने बैंक आदि की बात कह कर जाने की जुगत भिड़ाने लगा.
‘‘पापा, आप भी हमारे साथ इंदौर चलें,’’ रचिता ने कह तो दिया किंतु उस का दिल आधा था, इंदौर में उन का 3 कमरों का फ्लैट था, उस में पापा को भी रखना एक समस्या थी.
‘‘मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा,’’ पापा ने जब अपना अंतिम फैसला सुनाया तो उन की जान में जान आई.
‘‘लेकिन पापा तो अस्वस्थ हैं, वे अकेले कैसे रहेंगे?’’ रचिता के प्रश्न ने राहुल को कुछ सोचने पर विवश कर दिया. उसे ननिहाल की रजनी मौसी की याद आई जो विधवा थीं, उन की एक लड़की थी किंतु ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया, भाईभावज ने भी खोजखबर न ली तो अपने परिश्रम से मजदूरी कर के अपना और अपनी बच्ची का पेट पालने लगी.
राहुल ने ननिहाल में एक फोन किया और 2 दिन के अंदर रजनी मौसी मय पुत्री मेरठ हाजिर हो गईं, कृशकाय, अंदर को धंसी आंखों वाली रजनी मौसी के चेहरे पर नौकरी मिल जाने का नूर चमक रहा था, वे लगभग 40 वर्ष की मेहनतकश स्त्री थीं, बोलीं, ‘‘मैं आप की मां को दीदी कहा करती थी, रिश्ते में आप की मौसी हूं, इस घर को अपना मानूंगी और जीजाजी की सेवा में आप को शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’’
‘‘आप चायनाश्ता बनाएंगी, खाना, दवा, देखभाल आप करेंगी, महरी बाकी झाड़ूपोछा, बरतन कर ही लेगी, पगार कितनी लेंगी?’’ रचिता ने पूछा.