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लेखिका- सरला अग्रवाल

‘‘मां, मेरा टेपरिकौर्डर दे दो न, कब से मांग रहा हूं, देती ही नहीं हो,’’ विक्की ने मचलते हुए कहा.

‘‘मैं ने कह दिया न, टेपरिकौर्डर तुझे हरगिज नहीं दूंगी, बारबार मेरी जान मत खा,’’ रिचा ने लगभग चीखते हुए कहा.

‘‘कैसे नहीं दोगी, वह मेरा है. मैं ले कर ही रहूंगा.’’

‘‘बड़ा आया लेने वाला. देखूंगी, कैसे लेता है,’’ रिचा फिर चिल्लाई.

रिचा का चीखना सुन कर विक्की अपने हाथपैर पटकते हुए जोरजोर से रोने लगा, ‘‘देखो ताईजी, मां मेरा टेपरिकौर्डर नहीं दे रही हैं. आप कुछ बोलो न?’’ वह अनुनयभरे स्वर में बोला.

‘‘रिचा, क्या बात है, क्यों बच्चे को रुला रही हो, टेपरिकौर्डर देती क्यों नहीं?’’

‘‘दीदी, आप बीच में न बोलिए. यह बेहद बिगड़ गया है. जिस चीज की इसे धुन लग जाती है उसे ले कर ही छोड़ता है. देखिए तो, कैसे बात कर रहा है. तमीज तो इसे छू नहीं गई.’’

‘‘पर रिचा, तुम ने बच्चे से वादा किया था तो उसे पूरा करो,’’ जेठानी ने दृढ़तापूर्वक कहा, ‘‘मत रो बच्चे, मैं तुझे टेपरिकौर्डर दिला दूंगी. चुप हो जा अब.’’

‘‘दीदी, अब तो मैं इसे बिलकुल भी देने वाली नहीं हूं. कैसे बदतमीजी से पेश आ रहा है. सच कह रही हूं, आप बीच में न पडि़ए,’’ रिचा बोली.

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रिचा की बात सुन कर विभा तत्काल कमरे से बाहर चली गई. विक्की उसी प्रकार रोता, चीखता रहा. दोपहर के खाने से निबट कर देवरानी, जेठानी शयनकक्ष में जा कर लेट गईं. बातोंबातों में विक्की का जिक्र आया तो रिचा कहने लगी, ‘‘दीदी, मैं तो इस लड़के से परेशान हो गई हूं. न किसी का कहना मानता है, न पढ़ता है, हर समय तंग करता रहता है.’’

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