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लेखिका- निर्मला सिंह

हक्कीबक्की बावली सी कुसुम डायनिंग चेयर पर बैठ गई. एक प्लेट में हलवा रखा था, दूसरी प्लेट में गोभी के गरम परांठे. नाश्ता देते समय शहद सी मीठी बोली में बहू बोली, ‘‘पहले इन कागजों पर साइन कर दीजिए. फिर नाश्ता कर लीजिएगा.’’

‘‘न...न, मैं नहीं करूंगी साइन.’’

‘अच्छा, तो यह आदर, यह प्यार इस लालच में किया जा रहा था. छि:छि:, तुम दोनों ने तो रिश्तों को नीलाम कर दिया है. मैं चाहे मर जाऊं, चाहे मुझे कुछ भी हो जाए, मैं साइन नहीं करूंगी,’ कुसुम बड़बड़ाती रही.

‘‘जाइएजाइए, लीजिए सूखी ब्रैड और चाय, मत करिए साइन. और जब ये आ जाएं तब खाइएगा इन की मार.’’

बहू के शब्द तीरों से भी ज्यादा घायल कर गए कुसुम को. वह बाहर से अंदर तक लहूलुहान हो गई.

मरती क्या न करती. भूखी थी सूखी ब्रैड चाय में डुबो कर खाई, रोती रही. सोचती रही, ‘लानत है ऐसी जिंदगी पर. गाजर का हलवा, भरवां परांठे खा कर क्या मैं तेरी गुलाम बन जाऊं. न...न, मैं अपाहिज नहीं बनना चाहती. मैं अपना सबकुछ तुझे दे दूं और मैं अपाहिज बन जाऊं, यह नहीं हो सकता,’ बुदबुदाती हुई कुसुम, ब्रैड और चाय से ही संतुष्ट हो गई. मन ने कहा, ‘जाए भाड़ में तेरा हलवा और परांठे. मैं अपने जमाने में बचा हुआ हलवा, परांठेऔर पूरी मेहरी तक को खाने के लिए देती थी.’

कुसुम बहू की क्रियाएं आंखें फाड़फाड़ कर देख रही थी. सास की पीड़ा, दुख, व्यथा से बहू अनजान सी अपने कामों में व्यस्त थी. चायनाश्ता कर के उस ने अपना लंच बौक्स तैयार किया, फिर गुनगुनाती हुई पिं्रटैड सिल्क की साड़ी और उसी रंग की मैच करती माला पहन कर कालेज चली गई. बाहर से घर में ताला लगा दिया.

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