लेखिका-रिजवाना बानो ‘इकरा’
‘‘नहीं, अपनी हैल्प करनी है मुझे,‘‘ आत्मविश्वास भरा जवाब आया चंचल का.
‘‘अपनी हैल्प? हाहाहा...दिमाग तो ठीक है न तुम्हारा चंचल? तुम को किस बात की कमी है?‘‘
‘‘ये जुमला 10 सालों से सुनती आ रही हूं, शिशिर. अब बस भी करो ये ड्रामा. मुझे कब, कैसे, क्या करना है, सबकुछ तो आप और मांजी फैसला लेते हैं. मेरी अपनी कोई मरजी, कोई अस्तित्व नहीं छोड़ा है आप ने. ये कमी है मुझे.‘‘
‘‘हां, तो सही सोचते हैं हम लोग. समझ है ही कहां तुम में. देखो, अपने पीहर 3 दिन रुकी हो और कैसी बातें करनी लगी हो. दिल्ली चली जाओ, आज ही.‘‘
‘‘नहीं, दिल्ली तो मैं रविवार को ही जाऊंगी. बस, आप को बतानी थी ये बात, सो बता दी मैं ने.‘‘
‘‘कह रहा हूं न मैं, आज ही जाओ. और ये कोर्स वगैरह का भूत उतारो अपने दिमाग से, बच्चों पर ध्यान दो बस.‘‘
‘‘शिशिर, बच्चे जितने मेरे हैं, उतने ही आप के भी हैं. और ये मेरा आखिरी फैसला है, सोच लीजिए आप,‘‘ फोन डिस्कनैक्ट हो गया. पीछे खड़ा मनु बहुत खुश है, दीदी को शादी के बाद आज अपने असली रूप में देख रहा है.
‘‘फैसला? मेरी चंचल फैसले कब से करने लगी? वो तो फैसले मानती है बस,‘‘ अब शिशिर को थोड़ी घबराहट हुई, चंचल की ‘जिद‘ दिख रही थी उसे.
आकांक्षा का घर, आज समय से पहले, ब्रैडआमलेट और चाय बना कर तैयार है. हालांकि आज आकांक्षा औफिस के लिए तैयार नहीं हुई है.
‘‘क्या बात है डार्लिंग? आज तो फेवरेट नाश्ता और वो भी समय से पहले? क्या डिमांड होने वाली है आज? हां, और तुम ये आज तैयार क्यों नहीं हुईं? नौकरीवौकरी छोड़ने का इरादा है क्या?‘‘