विक्रांत को स्कूटर से अंतिम बार जाते हुए देखने के लिए माधुरी बालकनी में जा कर खड़ी हो गई. विक्रांत के आंखों से ओझल होते ही उसे लगा जैसे सिर से बोझ उतर गया हो. अब न किसी के आने का इंतजार रहेगा, न दिल की धड़कनें बढ़ेंगी और न ही उस के न आने से बेचैनी और मायूसी उस के मन को घरेगी. यह सोच कर वह बहुत ही सुकून महसूस कर रही थी.
जब किसी के चेहरे से मुखौटा उतर कर वास्तविक चेहरे से सामना होता है तो जितनी शिद्दत से हम उसे चाहते हैं उसी अनुपात में उस से नफरत भी हो जाती है, एक ही क्षण में दिल की भावनाएं उस के लिए बदल जाती हैं. ऐसा ही माधुरी के साथ हुआ था.
माधुरी के विवाह को 5 साल हो गए थे. विवाह के बाद दिल्ली की पढ़ीलिखी, आधुनिक विचारों वाले परिवार में पलीबढ़ी माधुरी को उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर में रहने से और अपने पति मनोहर के अंतर्मुखी स्वभाव के कारण बहुत ऊब और अकेलापन लगने लगा था.
विक्रांत मनोहर के औफिस में ही काम करना था. अविवाहित होने के कारण अकसर वह मनोहर के साथ औफिस से उस के घर आ जाता था. माधुरी को भी उस का आना अच्छा लगता था. फिर वह अकसर खाना खा कर ही जाता था. खातेखाते वह खाने की बहुत तारीफ करता, जबकि अपने पति के मुंह से ऐसे बोल सुनने को माधुरी तरस जाती थी.
उस के आते ही घर में रौनक सी हो जाती थी. माधुरी उस से किताबों, कहानियों, फिल्मों, सामाजिक गतिविधियों पर बात कर के बहुत संतुष्टि अनुभव करती थी. धीरेधीरे वह उस की ओर खिंचती चली गई. जिस दिन वह नहीं आता तो उसे कुछ कमी सी लगती, मन उदास हो जाता. धीरेधीरे माधुरी को एहसास होने लगा कि इस तरह उस का विक्रांत की ओर आकर्षित होना मनोहर के प्रति अन्याय होगा, यह सोच कर वह मन से बेचैन रहने लगी. उसे लगने लगा कि जैसे वह कोई अपराध कर रही है, विवाहोपरांत किसी भी परपुरुष से एक सीमा तक ही अपनी चाहत रखना उचित है, उस के बाद तो वह शादीशुदा जिंदगी के लिए बरबादी का द्वार खोल देती है.