‘‘माताजी, मैं जाऊं,’’ माताजी का सिर सहलाते बसंती ने पूछा तो वे क्षीण स्वर में बोलीं, ‘‘अभी मत जा...’’
बीमारी ने माताजी का शरीर जर्जर और मस्तिष्क कुंद कर दिया था. पिछले सवा साल से वे बिस्तर पर थीं. पहले जबान लड़खड़ाई, फिर कदम बेजान हो गए तो वे बिस्तर की हो कर रह गईं. जब तक वे थोड़ाबहुत चल पाती थीं, यही बसंती बाथरूम तक जाने में उन की मदद कर देती थी. उन का दिमाग ठीक था तो वे बसंती के हाथ में कुछ न कुछ रख देती थीं. कभी रुपए, कभी साड़ी, कभी कुछ और यानी उसे कभी खाली हाथ नहीं जाने देतीं. वे सोचतीं किस के लिए जोड़ना है. अब जो उन की सेवा कर दे, उसी को दे दें.
बसंती उन के घर में पिछले 20 साल से काम कर रही थी. उन की दोनों बहुएं भी उसी के सामने आई थीं. खुद बसंती भी तब 20 की थी अब 40 की हो गई थी.
बसंती भी कितनी देर तक रहती. दूसरे वह कई घरों में काम भी करती थी. धीरेधीरे माताजी इस लायक भी नहीं रह गईं कि अलमारी से निकाल कर उसे कुछ दे सकें. फिर भी बसंती उन का काम कर देती थी. घर में 2 बेटे, 2 बहुएं थीं. बेटों का अपनी बीवियों को नौकरी करने के लिए मना करने पर, माताजी की जिद व प्रयासों से वे नौकरी कर पाई थीं लेकिन आज जब वे बिस्तर की हो कर रह गईं तो बहुएं उन के कमरे में झांकती भी नहीं थीं. छोटी बहू आ कर दवाइयां सामने रख जाती थी...जब तक वे खुद खा पातीं, खा लेती थीं. जब नहीं खा पाईं तब बसंती का इंतजार करतीं. बड़ी बहू बेमन से भोजन की थाली रख जाती.