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वह रीता सा बचपन था और अब यह व्यस्त सा यौवन. जाने क्यों सूनापन मीलों से मीलों तक यों पसरा है मानो बाहर कुहरा और घना हो आया है. राउरकेला से 53 किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के जशपुर के इस छोटे से साफसुथरे लौज में अचानक मैं क्या कर रही हूं, खुद ही नहीं जानती.

लौज के इस कमरे में बैठी खुली खिड़की से दूर कुहरे में मैं अपलक ताकती हुई खुद को वैसा महसूस करने की कोशिश कर रही हूं जैसा हमेशा से करना चाहती थी, हां, चाहती थी, लेकिन कर नहीं  पाई थी.

हो सकता है ऐसा लगे कि युवा लड़की अकसर व्रिदोहिणी हो जाती है, घरपरिवार, पेरैंट्स हर किसी से लोहा लेना चाहती है क्योंकि वह अपनी सोच के आगे किसी को कुछ नहीं समझती. पर रुको, ठहरो, पीछे चलो. देखोगे तो ऐसा पूरी तरह सच नहीं है.

चलो, थोड़ा इतिहास खंगालें.

तब मैं बहुत छोटी थी. यही कोई 5 साल की. मुझे याद है मेरे पापा मुझे प्यार करते थे. गोद में बिठाते थे. लेकिन जैसे ही मैं मां के पास जाना चाहती, पापा क्रोधित हो कर मुझे प्रताडि़त करते. मुझे अपशब्द कहते. मुझे गोद में पटक देते.

धीरेधीरे मैं बड़ी होती गई. देखा, मां अपने शास्त्रीय गायन की वजह से कई बार पापा के हाथों पिटती थीं. उन के गायन की वजह से कई बार लोग हमारे घर आते. पापा मां पर गाहेबगाहे व्यंग्य कसते, मां को ले कर अपशब्द कहते. और उन के जाने के बाद कई दिनों तक मां को जलील करते रहते. ऐसा वातावरण बना देते कि घर के  काम के बाद मां अपना गायन ले कर बैठ ही नहीं पातीं, और बेहद दुखी रहतीं.

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मां मेरे नानानानी की इकलौती संतान थीं. बहुत ही सरल, शांत, कर्मठ और अपने गायन में व्यस्त रहने वाली. पापा पार्टी पौलिटिक्स में रुचि रखने वाले, दूसरों पर रोब जमाने वाले बड़बोले. पापा के परिवार को ऊंचे खानदान के होने का बड़ा गर्व था. कुल, मान और पैसे के बूते समाज में उन के रोब को देखते हुए मेरे नाना ने मेरी मां के रूप में दुधारू गाय यहां बांध दी. उन्होंने सोचा था कि इन के रोब से बेटी का और उस के बाद बेटी के पिता का मान और रोब बढ़ेगा. मगर हुआ कुछ उलटा ही.

मां हैं मेरी शांत प्रकृति की. वे अपशब्दों और पीड़ा के आगे अपने होंठ सिल लेतीं ताकि बेटी को लड़ाई के माहौल से दूर रखा जा सके. मगर परिवार में किसी एक व्यक्ति की भी मनमानी से बच्चों के विकास का माहौल नहीं रहता, चाहे दूसरा कितना ही चुप रह जाए.

उस वक्त मेरी उम्र कोई 12 वर्ष की रही होगी जब जाने किनकिन घटनाओं के बाद मेरे पापा चिल्लाते हुए आए और मां का गला दबोच लिया. मेरी मां बड़ी स्वाभिमानी थीं. पापा उन का गला दबा रहे थे और वे चुपचाप उन से आंखें मिलाए खड़ी थीं. यह दृश्य देख मैं अंदर से कांप गई. पापा की छत्रछाया में मुझे मेरी मौत नजर आने लगी. मैं बिलख कर पापा के पैरों में पड़ कर भीख मांगने लगी कि वे मां को छोड़ दें.

मुझे पापा ने झटका दिया. मैं नाजुक सी, बेबस बच्ची अभी संभलती, उन्होंने मां को छोड़ मुझे गरदन पकड़ कर उठाया और धक्का दे कर कहा, ‘कमीनी, मां की तरफदारी करती है.’ मैं उन के धक्के से दूर जा गिरी, मां ने दौड़ कर मुझे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया.

इस तरह हम मांबेटी के न चाहते हुए भी पापा के खुद के व्यवहार की वजह से पापा को लगता गया कि हम उन के विरोधी हैं, मां उन के बारे में मुझे भड़काती हैं और तभी मैं उन से दूर होती जा रही हूं.

घर का माहौल बेवजह विषैला हो गया था. लेकिन मां को पापा से अलग होने की सलाह देने पर मां का साफ इनकार ही रहता. मैं बड़ी पसोपेश में थी कि इतनी भी क्या मजबूरी कि मां को घुटघुट कर जीना पड़े और तब, जब वे रेडियो की हाई आर्टिस्ट भी हैं.

खैर, 15 साल की अवस्था में उस का भी पता मुझे लग ही गया कि मां की आखिर मजबूरी क्या थी. नानीजी का देहांत हुआ तो हम दोनों मांबेटी के साथ पापा भी रस्म निभाने कोलकाता पहुंचे.

मां की स्थिति देख नाना कुछ अवाक दिखे. मां के साथ पापा का अभद्र व्यवहार नानाजी को खलने लगा. नाना ने जरा पापा को समझाना क्या चाहा, पापा उखड़ गए. उन के अनुसार, नाना को हमेशा दामाद के आगे झुक कर रहना चाहिए, और कुछ समझाने का दुस्साहस कदापि नहीं करना चाहिए.

नाना सकते में थे. अब तक कभी मां ने कुछ बताया नहीं था, और लगातार हो रहे मां के साथ गलत व्यवहार का नाना को पता भी नहीं था.

मैं ने नाना को सबकुछ बता कर हमारे घर की परेशानी दूर करनी चाही. मां के पीछे मैं ने नाना के सामने मेरी मां की जिंदगी के कई सारे पन्ने खोल दिए. पर बात इस तरह बिगड़ जाएगी, मुझे तो अंदाजा ही नहीं था. नाना को हार्टअटैक आ गया और हम पर कई सारी परेशानियां एकसाथ आ गईं.

खैर, जैसेतैसे जब वे ठीक हो कर आए तो उन में काफी मानसिक परिवर्तन आ गया था. उन्होंने मां को सुझाव दिया कि मां चाहें तो यहीं रुक जाएं. लेकिन मां ने ऐसा करने से मना कर दिया. अभी मैं 10वीं में थी और मेरे जीवन में कोई बाधा उत्पन्न हो, वे ऐसा नहीं चाहती थीं. क्या बस इतनी ही बात थी? हम ने जोर डाला मां पर, तो कुछ बातें और सामने आईं.

दरअसल, मेरी नानी के पिता ने नानी की मां को अपनी जिंदगी से इस तरह अलग कर रखा था और अपनी भाभी के इतने करीबी थे कि उन की मां ने जहर खा लिया था.

नानी और उन की दीदी को बड़े दुख सहने पड़े थे. तो नानी ने वचन लिया था मेरी मां से कि जिंदगी में कभी हिम्मत हार कर पलायन नहीं करेगी. अपने बच्चों को समाज के नजर में कमतर नहीं होने देगी. मां तो वचन निभा रही थीं लेकिन मैं पापा के ईर्ष्या, क्रोध, घृणा, प्रतिशोध से खूब परेशान थी.

किसी भी तरह घर से निकलने के लिए मैं 12वीं करते हुए प्रतियोगी परीक्षा में बैठ रही थी. इस लिहाज से पहली बार में होटल मैनजमैंट में मेरा सरकारी कालेज में चयन हो गया तो बिना वक्त गंवाए भुवेनश्वर में मैं ने ऐडमिशन ले लिया. अब दूसरे साल कोलकाता के मैरियट होटल से मैं इंडस्ट्रियल टे्रनिंग कर रही थी. पर इस बार भी परिस्थितियां जटिल होती गईं.

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परिवारनुमा कठघरे में खड़े जवाबतलब से मैं बेतहाशा ऊब चुकी थी और वाकई अपने चारों ओर की बददिमाग दीवारों को हथौड़ों के बेइंतहा वार से तोड़ देना चाहती थी. ट्रेनिंग के दौरान मैं अपने दूसरे दोस्तों की तरह अलग फ्लैट ले कर रहना चाहती थी. पापा ने ऐसा होने नहीं दिया. कंपनी के जीएम पद पर थे वे. पैसे की कोई कमी नहीं थी, लेकिन थी तो विश्वास की कमी.

पीछे मुड़ कर देखने पर उन्हें सिर्फ अंधड़ ही तो दिखता था, धुआं ही धुआं. न रिश्ता साफ था, न प्यार, न विश्वास. उन के दिल में हमेशा मेरे लिए शक ही रहे. उन्हें लगा कि अकेलेपन का मौका मिलते ही मैं सब से पहले उन की इज्जत पर वार करूंगी. बदले की जिस फितरत में वे झुलस रहे थे उसी में दूसरों को भी आंकना उन की आदत हो गईर् थी.

मां पर उन्होंने यह जिम्मेदारी डाल दी कि वे अपने पिताजी को यह दायित्व दे दें कि वे मेरी जिम्मेदारी उठाएं. पापा की यह बात, जो उन्होंने मेरी मां से कही, मेरे कानों में गूंजती रहती, ‘अपने पिताश्री से कहो कि बेटी ब्याह कर सिंहासन पर बैठ सम्राट बने पैर न डुलाते रहें बल्कि पोती की सेवा कर के कुछ दामाद का भी ऋ ण उतारें.’

अवाक थी मैं, नाना हमेशा से ही अपनी कम आर्थिक स्थिति में भी हमारा खयाल रखते रहे हैं.

इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग के लिए मैं भुवनेश्वर से कोलकाता गई थी. मेरी इच्छा थी मैं दिल्ली के लीलाज होटल गु्रप में अपनी ट्रेनिंग पूरी करूं. मैं ने पापा से छिपा कर वहां के लिए इंटरव्यू दिया और चयन भी हो गया. मगर पापा की मरजी के बगैर मैं एक कदम भी नहीं बढ़ा सकी.

नाना पूरी लगन से मेरी जिम्मेदारी में जुट गए थे. लेकिन यहां भी प्रेम का बंधन अब भारी पड़ने लगा मुझ पर. मुझे ट्रेनिंग से वापस आने में रात के 2 बज रहे थे. होटल की गाड़ी घर तक छोड़ रही थी. अभी नींद आने तक सारे दिन का संदेश मुझे फोन पर चैक करना होता था. दरअसल, ड्यूटी में अथौरिटी के आदेश से फोन जमा रहते थे.

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