सुनंदा एयरपोर्ट पहुंच चुकी थी. लगेज बैल्ट पर अपना बैग आने का इंतजार करती हुई सोचने लगी, आज इतने सालों बाद लखनऊ आना ही पड़ा और जीवन की किताब का वह पन्ना, जो वह लखनऊ से मुंबई जाते हुए फाड़ कर फेंक गई थी, हवा के झोंके से उड़ आए पत्ते की तरह फिर उस के आंचल में आ पड़ा है. 5 साल बाद वह लखनऊ की जमीन पर कदम रखेगी, जहां से निकलते हुए उस ने सोचा था कि वह यहां कभी नहीं आएगी.
उसे इस बात का तो यकीन था कि बाहर उसे लेने विनय जरूर आया होगा. कैसा लगेगा इतने सालों बाद एकदूसरे को देख कर? कितना प्यार करता था उसे, कैसे जी पाया होगा वह उस के बिना? वह भी क्या करती, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं, अपनी भावनाओं को कैसे दबाती? विनय ने कैसे खुद को संभाला होगा, उस के बिखरे व्यक्तित्व को देख क्या सुनंदा को अपराधबोध नहीं होगा?
अपना बैग ले कर सुनंदा एयरपोर्ट से बाहर निकली, विनय ने उसे देख कर हाथ हिलाया. हायहैलो के बाद उस के हाथ से बैग ले कर विनय ने पूछा, ‘‘कैसी हो?’’
सुनंदा ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, वह बहुत स्मार्ट और फ्रैश नजर आ रहा था. बोली, ‘‘मैं ठीक हूं, तुम कैसे हो.’’
विनय ने मुसकरा कर कहा, ‘‘ठीक हूं.’’
सुनंदा ने चलतेचलते उसे बताया, ‘‘कल यहां मेरी एक मीटिंग है. सोचा, यहां आने पर तुम से मिल लेना चाहिए. बस, तुम्हारा नंबर मिलाया, वही नंबर था तो बात हो गई. और सुनाओ, लाइफ कैसी चल रही है?’’
‘‘बढि़या,’’ फिर पूछा, ‘‘जाना कहां है तुम्हें?’’