घर्रघर्र की आवाज करती बस कच्ची सड़क पर बढ़ती जा रही थी. उस में बैठी अरुणा हिचकोले खाती बाहर का दृश्य एकटक देख रही थी. नारियल के पेड़ों के झुंड, कौफी के बागान, अमराइयां, सुपारी के पेड़, लहलहाते धान के खेत, चारों तरफ हरियाली और प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य देख कर अरुणा की आंखें भर आईं.
बचपन में यही सफर वह बैलगाड़ी में तय करती थी. उस के गांव तिरुपुर में तब बस और मोटरें नहीं चलती थीं. आसपास के गांवों तक लोग बैलगाड़ी में ही आयाजाया करते थे.
अरुणा की आंखें शून्य में जा टंगीं. वह अतीत की यादों में खो गई.
वह अभी 16 साल की थी कि उस के मातापिता ने उस का ब्याह तय कर दिया. उस ने बहुत नानुकुर की पर उस की एक न चली. उस का मन आगे पढ़ने का था पर पिता बोले, ‘आगे पढ़ कर क्या करना है, वही चूल्हाचक्की न. बस, बहुत हो गया.’
इस बात की जानकारी जब उस के चाचा गोविंद को हुई तो वे शहर से दौड़े चले आए.
‘अन्ना, यह क्या करते हो? इतनी छोटी उम्र में बेटी की शादी?’
‘अरे, मेरा बस चलता तो इसे छुटपन में ही ब्याह देता,’ कृष्णस्वामी बोले, ‘लड़की रजस्वला हो उस से पहले उस का विवाह होना कल्याणकारी होता है. ऐसे ही विवाह को ‘गौरी कल्याणम’ कहा जाता है और इसे बहुत श्रेष्ठ माना जाता है.’
‘लेकिन आजकल ये सब कौन करता है. अरुणा को आगे पढ़ने दीजिए.’
‘देखो गोविंद, बेटी को आगे पढ़ाने का मतलब है उसे शहर भेजना, क्योंकि हमारे गांव में कालेज तो है नहीं.’
‘इसे मेरे पास बेंगलुरु भेज दीजिए.’