नालडेहरा में किसी हिंदी फिल्म की शूटिंग चल रही थी. रजत और बच्चे उस ओर चले गए और वह घूमघूम कर कुदरती नजारों के चित्र लेने लगी. अर्चना एक पहाड़ी बच्ची की तसवीर उतारने लगी तो सहसा फे्रम में ‘वह’ आ गया. अर्चना ने कैमरा हटा कर देखा तो जैसे वह हिल कर रह गई. एक पेड़ से टिक कर खड़ा था ‘वह’ और नीली जींस और क्रीम कलर की जैकेट में कल से भी ज्यादा डेशिंग लग रहा था.
‘क्या चाहते हैं आप?’ यह पूछने के लिए जैसे ही अर्चना आगे बढ़ी, वह पलक झपकते ही न जाने कहां गायब हो गया.
घूमघाम कर शाम को लौट आए थे वे लोग. बच्चे अंत्याक्षरी खेल रहे थे और अर्चना उन से बेखबर ‘उस की’ ही सोच में डूबी थी कि रजत ने टोका, ‘‘भई अर्ची, आज तुम्हारा चैटर बौक्स क्यों बंद है? कुछ बकबक करो बेगम, चुप्पी तुम्हें शोभा नहीं देती.’’
‘‘थोड़ा सिरदर्द है. थकान भी हो रही है,’’ कह कर टाल दिया उस ने.
रात फिर नींद गायब थी अर्चना की. उसे ‘उसी’ की सोच ने जकड़ा हुआ था. एक बार तो जी में आया कि रजत को सब बता दे पर यह सोच कर रुक गई कि रजत न जाने इस बात को किस रूप में लें? वह उस का मजाक भी उड़ा सकते हैं, उस पर शक भी कर सकते हैं या हो सकता है कि ‘वह’ फिर मिले तो उस से झगड़ने ही बैठ जाएं और एक बात तो पक्की है कि उसे फिर कहीं अकेले नहीं जाने देंगे. इस से तो बेहतर है कि वह चुप ही रहे. जो होगा देखा जाएगा.
अगले दिन ‘रिवोली’ पर सुबह का शो देख कर रजत और बच्चे जाखू चले गए. उन के लाख कहने पर भी अर्चना नहीं गई और सड़क के किनारे बनी दुकानों से छोटीछोटी कलात्मक वस्तुएं खरीदती हुई वह माल रोड पर घूमती रही.
आखिर थक कर वह अनमनी सी चर्च के सामने बिछी एक बैंच पर बैठ गई.
सहसा मन में चाह उठी कि ‘वह’ दिख जाए तो चैन आए. अपनेआप पर हैरानी भी हो रही थी अर्चना को कि जिस की उपस्थिति की कल्पना भी उसे 2 दिन से भयभीत कर रही थी और जिस के आसपास मौजूद होने के एहसास मात्र से वह असहज होती रही, आज उसी को देखने की ललक क्यों जाग रही है मन में? कहीं चला तो नहीं गया ‘वह’? फिर झरने से बहते एक खनकते हंसी के स्वर ने उस के भटकते मन को जैसे रोक दिया.
अर्चना ने देखा सामने वाली बैंच पर बैठा एक नवविवाहिता जोड़ा दीनदुनिया से बेखबर आपस में हंसीठिठोली कर रहा था. नई नर्म कोंपल सी कोमल वह लड़की चूड़ा खनकाते हुए कभी हंस रही थी, कभी इतरा रही थी तो कभी इठला रही थी और छैलछबीला सा उस का पति खिदमती अंदाज में उस के नाजनखरे उठा रहा था. कभी भाग कर कुल्फी लाता, कभी पौपकौर्न तो कभी चाट के पत्ते. ‘कितने खुशनुमा होते हैं जिंदगी के ये कुछ दिन… फिर तो वही घरगृहस्थी के झगड़ेपचड़े,’ एक ठंडी सांस ले कर सोचा अर्चना ने.
‘‘एक्सक्यूज मी.’’ मुड़ कर देखा अर्चना ने, तो सिर से पांव तक कांप गई. सामने ‘वही’ खड़ा था.
‘‘आप?’’ कह कर वह हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई.
‘‘जी, आप अर्चना हैं न? अर्चना सचदेव, अमृतसर से?’’
‘‘जी हां, मगर आप?’’
‘‘मुझे पहचाना नहीं आप ने?’’ उस के स्वर में न पहचाने जाने का दर्द था.
अर्चना ने पहली बार उसे सिर से पांव तक देखा. काले ट्राउजर और बंद गले के काले स्वैटर में वह पिछले दिनों से ज्यादा आकर्षक लग रहा था. कश्मीरी सेबों सी लालिमा लिए गोरा रंग और घनेघुंघराले बाल, किसी हिट फिल्म का नायक लग रहा था वह. अर्चना ने अपने दिमाग पर पूरा जोर डाला, स्मृतियों की सारी डायरियां टटोल डालीं, लेकिन उस की पहचान नहीं मिली तो हार कर अर्चना ने इनकार में गरदन हिलाते हुए कहा, ‘‘सौरी, मैं नहीं पहचान पाई आप को.’’
‘‘मैं अखिल हूं… अखिल आनंद… वह खालसा कालेज…’’
‘‘ओ, माय गौड, वहां तक तो मैं पहुंची ही नहीं. कितना बदल गए हैं आप? कैसे पहचानती मैं आप को?’’
‘‘लेकिन आप बिलकुल नहीं बदलीं. बिलकुल वैसी ही हैं आप, तभी तो मैं आप को देखते ही पहचान गया, जब आप गाड़ी से सामान निकाल रही थीं, इत्तेफाक से मैं भी ‘हिमलैंड’ में ही ठहरा हूं.’’
‘‘तभी क्यों नहीं बात कर ली आप ने? इस तरह मेरे पीछेपीछे क्यों घूमते रहे?’’
‘‘डर गया था कि आप न जाने कैसा बरताव करें.’’
‘‘तो अब क्यों सामने चले आए?’’
‘‘डर गया था कि कहीं आप चली न जाएं और मैं आप से दो बातें भी न कर पाऊं.
‘‘अकेले आए हैं आप घूमने?’’
‘‘मैं घूमने नहीं, काम से आया हूं यहां. शिमला में हमारे सेब के बाग हैं, इसी सिलसिले में आनाजाना लगा रहता है.’’
‘‘और बाकी सब… पत्नी वगैरा, वहीं हैं अमृतसर में?’’
‘‘नहीं, अमृतसर तो कब का छूट गया, अब चंडीगढ़ में हैं हम. एक बेटी भी है मेरी, बिलकुल आप की तरह खूबसूरत. सच कहूं अर्चना मैं आप को अभी भी भूल नहीं पाया,’’ बड़े हसरत भरे स्वर में कहा अखिल ने.
‘‘अब इन बातों का क्या फायदा?’’ एक निश्वास के साथ कहा अर्चना ने.
‘‘आप कहां हैं आजकल?’’ अखिल ने बात बदली.
‘‘दिल्ली में.’’
‘‘अर्चना, आप यहीं रुकिए, प्लीज. कहीं जाइएगा नहीं. मैं अभी आया, 5 मिनट में,’’ कह कर वह चला गया और अर्चना का दिलोदिमाग 12 बरसों को चीर कर अमृतसर के खालसा कालेज में जा पहुंचा.
बीकाम अंतिम वर्ष में थी वह. 4 सहेलियों की चौकड़ी थी उन की. मस्त, खिलंदड़ और शरारती. उन के अंतिम 3 पीरियड्स खाली रहते थे, इसलिए वे कालेज बस के बजाय पैदल ही घर चल देती थीं. हंसतीबतियाती आधी सड़क घेर कर चलती थीं वे चारों. उन दिनों एक हैंडसम लड़का एक निश्चित दूरी बना कर उन के पीछे आया करता था बाइक पर. वे उसे कभी मजनू कहतीं तो कभी रोमियो. वे तो यह भी नहीं जानती थीं कि वह दीवाना किस का है.
पहेली तो तब सुलझी, जब परीक्षाएं शुरू होने से पहले लाइबे्ररी की किताबें लौटाने वह अकेली कालेज गई. लाइब्रेरी से निकल कर कोरीडोर तक ही पहुंची थी कि अचानक ‘वह’ सामने आ गया और एक खुलापत्र उस के हाथ में थमा कर न जाने कहां गायब हो गया और अर्चना ने कांपते मन और लरजते हाथों से उस अमराई में जा कर वह खत पढ़ा जहां अपनी हमजोलियों के साथ बैठ कर उस ने हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ पढ़ी थी, ‘नीरज’ के गीत गाए थे और भविष्य के आकाश को चांदसितारों से सजाने की योजनाएं बनाई थीं.