लेखक- मनोज सिन्हा
ज्योति तो उन के दिल का टुकड़ा थी, उसे मर जाने तक को कह दिया उन्होंने. कैसे निकली यह बात उन की जबान से. खुद को धिक्कारते हुए बिस्तर से उतर कर विक्षिप्तों की तरह टहलने लगे थे मुंशीजी. बारबार एक ही यक्षप्रश्न, आखिर कैसे हुआ यह हादसा?
आत्मग्लानि की आग से पसीज उठा था उन का सर्वस्व. यह सोच कर अपने कमरे से निकल गए थे कि ज्योति बिटिया को सारा अंतर्द्वंद्व, सारी व्यथा सुना कर पश्चात्ताप कर लेंगे.
...इस बार मुंशीजी की व्यथा सुमित्रा नहीं सह सकी. लौट कर बिस्तर पर उन के लेटते ही धीरे से उन के सीने पर हाथ रखा था सुमित्रा ने. करवट बदल कर मुंशीजी ने भी देखा था सुमित्रा की बंद पलकों से सहानुभूति की बूंदें अब भी लुढ़क रही थीं.
आंख लगी ही थी कि अचानक चिहुंक कर जाग गई ज्योति.
बाबूजी का क्रोध एवं आवेश में फुंफकारता चेहरा अवचेतन से निकल कर बारबार उसे डरा रहा था. प्रतिध्वनित हो रही थी वही सारी दिल दरकाती बातें जो उस के अंतस में बहुत दूर जा कर धंस गई थीं. इस असह्य पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए ज्योति कईकई प्रयास कर चुकी थी, पर सब बेकार.
अचानक ही उस का चेहरा सख्त हो गया. आंखों में बेगानेपन का एक ऐसा मरुस्थल उतर आया था जहां मोहमाया, वेदनासंवेदना, मानअपमान के न तो झाड़झंखाड़ थे और न ही आंसूअवसाद का कोई अस्तित्व. एक निर्णय ने उस के भय के सारे अंतर्द्वंद्वों को धो डाला था और दरवाजे का सांकल खोल, अमावस की इस काली निशा में वह गुम हो गई थी.