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अम्मा तो दोषी नहीं थीं. हारीबीमारी पर किसी का जोर नहीं चलता है, पर सुरभि ने तो खुद मुसीबत को न्योता दिया था. ब्याह के बाद से आज तक उस ने पति की सेवा करना तो दूर, कभी उस के दिल में झांकने की भी चेष्टा नहीं की थी. यहां आने के लिए अम्मा ने उस पर कितना जोर डाला था. पर वही नहीं मानी थी. प्रारूप जब भी अपनी परेशानियों की चर्चा उस से करते, वह सुनीअनसुनी कर देती. अम्मा के कानों तक ये बातें न पहुंचें, यही प्रयत्न रहता था उस का. डरती थी कि अम्मा उसे जबरन प्रारूप के पास भेज देंगी, फिर उस की नौकरी का क्या होगा, उज्जवल भविष्य का क्या होगा?

धीरेधीरे प्रारूप दिल्ली कम आने लगे थे. एक तो लंबा सफर उन के तनमन को शिथिल करता, ऊपर से पत्नी की तटस्थता और अवहेलना आहत कर जाती थी. बस, मां का प्यार और मृदुल का दुलार ही उन्हें शांति प्रदान करता था. फोन पर अकसर बात कर लेते थे. वह भी ज्यों ही सुरभि फोन उठाती, उन्हें कई काम याद आ जाते थे. कहनेसुनने को रहा भी क्या था? उन का भावुक मन कहां आहत हुआ था, इस की तो महत्त्वाकांक्षी सुरभि कल्पना भी नहीं कर पाई होगी.

पिछली बार उन्होंने अम्मा को फोन पर बताया था कि वे काफी दिनों से बीमार थे, उन्हें अतिसार हो गया था. अन्न का एक दाना भी नहीं पचता था. बेटे की बीमारी की खबर सुन कर मां सुलग उठी थीं. उन्होंने अपने जमाने की कई पतिव्रता औरतों के उदाहरण दे डाले थे कि ऐसे समय में पत्नी ही तो पति की सेवा करती है. बीमार इंसान दवा के साथसाथ प्यार व सहानुभूति की भी आशा रखता है. पर सुरभि के समक्ष सुनहरा भविष्य और शानदार कैरियर एक बार फिर मुंहबाए खड़ा हो गया था. उन दिनों दफ्तर में पदोन्नति की नई सूची बन रही थी. ऐसे में उस का कहीं भी जाना नामुमकिन था. यों उस ने फोन पर पानी उबाल कर पीने और समय पर दवा लेने की हिदायतें दे कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी थी. बेटे के पास अम्मा ही पहुंची थीं. अम्मा ने ही पूरी तरह से उन की देखभाल की थी. जब लौटने लगीं तो शीतला को प्रारूप की देखभाल के लिए नियुक्त कर आई थीं.

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