लेखक- डा. रंजना जायसवाल

कोर्टरूम में सन्नाटा छाया हुआ था. सिर के ऊपर लगे एक पुराने पंखे और फाइलों के पन्नों के पलटने के अलावा कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी.

आज मुकदमे की आख्रिरी तारीख थी. पाखी सांस रोके फैसले के इंतजार में थी. उस ने दोनों बच्चों के हाथ कस कर पकड़ रखे थे. वकीलों की दलीलों के आगे वह हर बार टूटती, बिखरती और फिर अपनेआप को मजबूती से समेट हर तारीख पर अपनेआप को खड़ा कर देती. क्याक्या आरोप नहीं लगे थे इन बीते दिनों में. हर तारीख पर जलील और अपमानित होती थी पाखी. 8 साल की शादी. सबकुछ तो ठीक ही था.

अरुण एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे, खुद का मकान, खातापीता परिवार, सासससुर और एक छोटा भाई व बहन. एक लड़की को और क्या चाहिए था. फूफाजी ने रिश्ता बताया था. पापा कितने खुश थे. कोई जिम्मेदारी नहीं, एक छोटी बहन है वह भी शादी के बाद अपने घर चली जाएगी. पाखी उन्हें एक ही नजर में पसंद आ गई थी. पापा बहुत खुश थे.

‘’आप लोगों की कोई डिमांड हो तो बता दीजिए…’ पाखी के पिताजी ने कहा था. पाखी को आज भी याद है… अरुण ने छूटते ही कहा था, ‘अंकल, मैं इतना कमा लेता हूँ कि आप की बेटी को खुश रख लूंगा. आप अपनी बेटी को जो देना चाहे, दे सकते हैं, पर हमें कुछ नहीं चाहिए.‘ पाखी की नजर में कितनी इज्जत बढ़ गई थी अरुण के लिए. पर…

“कृपया शांति बनाए रखें, जज साहब आ रहे हैं.” इस आवाज़ ने पाखी की सोच को तेजी से ब्रेक लगा दिया. जज साहब ने बड़े ही सधे स्वर में फैसला सुनाना शुरू किया. वाद संख्या 15, सन 2018 अरुण सिंह बनाम पाखी सिंह के द्वारा याचिका दाखिल की गई थी. न्यायालय के द्वारा 6 महीने का वक्त दिए जाने पर भी दोनों पक्ष  साथ रहने को सहमत नहीं है. सो, यह न्यायालय तलाक के मुकदमे तथा बच्चों की कस्टडी के सम्बंध में मुकदमे का फैसला सुनाती है.

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 बी के अनुसार दोनों पक्षों के वकीलों की दलीलों को सुनने के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुंची है कि अरुण सिंह एवं पाखी सिंह दोनों की सहमति से उन का सम्बंध विच्छेद किया जाता है. चूंकि दोनों की संतानें अभी नाबालिग हैं और पाखी सिंह एक सामान्य गृहिणी हैं व आर्थिक रूप से कमजोर हैं, इसलिए अरुण सिंह पाखी सिंह को उन के भरणपोषण के अलावा बच्चों के पालनपोषण व भरणपोषण के लिए भी 10 हजार रुपये खर्चे के तौर पर देंगे,  साथ ही, यह न्यायालय महीने में 2 बार या हर 15 दिन पर पिता को अपने बच्चों से मिलने का अधिकार देने का फैसला सुनाती है. पाखी सिंह को इस सम्बंध में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.

जज साहब फैसला सुना कर चले गए. धीरेधीरे सभी लोग कमरे से बाहर निकल गए. पाखी बहुत देर तक यों ही बैठी रही. अरुण ने जातेजाते मुड कर उसे देखा. दोनों की आंखें टकरा गईं. न जाने कितने सवाल उन की आंखों में तैर रहे थे. मानो दोनों एकदूसरे से पूछ रहे थे, अब तो खुश हो न… यही चाहते थे न हम. पर क्या सचमुच वे दोनों यही चाहते थे…

विवाह की वेदी पर ली गईं सारी कसमें एकएक याद आ रही थीं… हिंदू विवाह सिर्फ एक संस्कार नहीं, सात जन्मों का नाता है जिसे कोई नहीं तोड़ सकता. एकदूसरे का हाथ थामे अरुण और पाखी ने भी तो यही कसमें खाई थीं. पर वक्त के थपेड़ों ने रिश्तों के धागों को तारतार कर दिया था. पारिवारिक न्यायालय के बाहर तलाक के लिए खड़े दंपतियों को देख कर मन कैसाकैसा हो गया था. आखिर ऐसा क्या हो जाता है जो संभाला नहीं जा सकता. पाखी भी तो यही सोचती थी. पर उसे क्या पता था, जिंदगी उसे ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर देगी.

पिताजी ने यथासंभव सबकुछ तो दिया. पर कहीं कुछ अधूरा सा था जिस की भरपाई पाखी अपने आसुओं से करती रही. बड़ी बहू…बहुत सारी जिम्मेदारियाँ उस के कंधों पर थीं. दिनभर वह चकरघिन्नी की तरह नाचती रहती. कभी पापा की दवा तो माँ जी का नाश्ता, तो कभी सोनल का प्रोजेक्ट. कहने को तो सोनल उस की हमउम्र थी पर 2 भाई की लाडली और इकलौती बहन लाड़ के कारण कभी बड़ी न हो पाई.

पाखी हमेशा सोचती थी…हमउम्र हैं, सहेलियों की तरह चुटकियों में हर काम निबटा देंगे और देवर तो मेरे भाई सोनू की तरह ही है. जब सोनू का काम कर सकती थी, उस का क्यों नहीं. पर लोग सच कहते हैं, ससुराल तो ससुराल ही होती है.

पाखी की बचपन की सहेली हमेशा कहती थी, पाखी किसी रिश्ते में कोई रिश्ता न ढूंढना, तो खुश रहोगी. कितनी नादान थी वह. उसे क्या पता था ससुराल पहुँचने से पहले ही एक छवि वहाँ बन चुकी थी – बड़े बाप की बेटी है, डिग्री वाली है. इन को कौन समझा सकता है. मांजी अकसर कह देतीं, ‘वह तो अरुण ने शराफत में कह दिया कि दो जोड़ी कपड़ों में विदा कर दीजिए. इस के पापा मान भी गए. कितने अच्छेअच्छे रिश्ते आ रहे थे मेरे लाडले के लिए. पर हमारी ही मति मारी गई थी.‘ पाखी हदप्रद सी देखती रह जाती. जिन डिग्रियों को देख कर पापा का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था, आज वही उलाहनों और तानों का जरिया बन गई थीं.

पापा ने शादी में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. सबकुछ तो दिया था पर…. पर मांजी अनर्गल प्रलाप अकसर शुरू हो जाता था. पाखी ने कई बार अरुण से इस बारे में बात करने की कोशिश की. पर अरुण तो जैसे कुछ सुनना ही नहीं चाहते थे. शुरुआत में तो वे हँस कर टाल देते पर वक्त बीतने के साथ वह मुसकराहट झुंझलाहट में बदलती चली गई. सब को खुश करने के चक्कर में पाखी अपनेआप को खुश रखना तो कब का भूल चुकी थी. तारीफ और ढांढस का एक शब्द सुनने के लिए उस के कान तरस गए थे.

अरुण भी खिंचेखिंचे से रहने लगे थे. पाखी भरेपूरे घर मे अकेले रह गई थी. पाखी और अरुण में न के बराबर बातें होती थीं और जब कभी बातें होतीं भी,   धीरेधीरे बहस, फिर झगड़े का रूप ले लेतीं. पाखी और अरुण के बीच झगड़े अपने मसलों को ले कर नहीं होते, पर आखिर पिस तो दोनों ही रहे थे. पाखी…पाखी, तुम ने बच्चों की फीस नहीं जमा  की, स्कूल से नोटिस आई है.

पाखी अरुण की आवाज सुन कर किचन से दौड़ी चली आई. अरे, अभी तक फीस नहीं जमा हुई? मैं ने तो भैया को बोला था. ‘मुझ से…मुझ से कब बोला भाभी’? ‘अरे भैया, आप उस दिन अपने दोस्त से मिलने जा रहे थे उसी तरफ, तब आप ही ने कहा था कि मैं जमा कर दूंगा’. पाखी की आवाज सुन कर पापा, मांजी, सोनल कमरे से बाहर निकल आए, ‘क्या बात है भाई, सुबहसुबह इतना शोर क्यों मचा रखा है’.

‘पापा देखिए न, बच्चों के स्कूल से नोटिस आई है कि अभी तक फीस जमा नहीं हुई है. मैं क्याक्या देखूं… घर कि बाहर’. अरुण सिर पकड़ कर बैठ गए. मम्मी ने बेटे की ऐसी हालत देख कर पाखी पर ही चिल्लाना शुरू कर दिया. एक काम ठीक से नहीं कर पाती. पता नहीं दिनभर करती क्या रहती है. हर चीज़ के लिए आदमी लगा हुआ है, तब भी महारानी को अपनेआप से फुरसत नहीं.

पाखी की आंखें फ़टी की फटी रह गईं. दिनभर इन लोगों की फरमाइशों को पूरा करतेकरते दिन कब निकल जाता है, पता ही नहीं चलता. और मैं दिनभर करती ही क्या हूं. पाखी ने बड़ी उम्मीद से अरुण की तरफ देखा, शायद …शायद आज तो कुछ बोलेंगे. पर अरुण हमेशा की तरह आज भी चुप थे.

पाखी के दिल का दर्द आंखों मे उभर आया और वह सैलाब बन कर आंखों की सरहदों को तोड़ कर बह निकला. पाखी चुपचाप अपने कमरे में चली आई. वह घंटों तक रोती रही. तभी कमरे में किसी ने लाइट जलाई. कमरा रोशनी से नहा गया. रोतेरोते उस की आंखें लाल हो चुकी थीं. अरुण चुपचाप बिस्तर पर आ कर लेट गए.

पाखी चुपचाप बाथरूम में चली गई और शावर की तेज धार के नीचे खड़े हो कर अपने मनमस्तिष्क में चल रहे तूफान को रोकने का प्रयास करती रही. पर, बस, अब बहुत ही हो चुका. अब और बरदाश्त नहीं होता. इस घर के लिए वह एक सजावटी गुड़िया से ज्यादा कुछ नहीं थी, जिस का होना न होना किसी के लिए कोई माने नहीं रखता था. पाखी ने अपने कपड़े बदले और गीले बालों का एक ढीला सा जूड़ा बना कर छोड़ दिया.

‘अरुण…अरुण, मुझे आप से कुछ बात करनी है.‘ ‘हूं, मेरे सिर में बहुत दर्द है. मैं इस समय बात करने के मूड में नहीं हूँ.’ पाखी ने जैसे अरुण की बात ही नहीं सुनी और वह बोलती चली गई. ‘अरुण, अब बस, बहुत हो चुका. मैं ने अब तक बहुत निभाया कि आप सभी को खुश रखने की कोशिश करूं. पर बस, अब और नहीं. अब मुझ से बरदाश्त नहीं होता. हर बात पर मेरे घर वालों को और मुझे घसीटा जाता है. दम घुटता है मेरा. अब मैं यहाँ और नहीं रख सकती. मैं बच्चों को ले कर अपने घर जा रही.’

अरुण ने जलती निगाहों से देखा, ‘पाखी सोच लो, अगर आज तुम गईं तो इस गलतफहमी में बिलकुल भी नहीं रहना कि मैं या मेरे घरवाले तुम्हें मनाने आएंगे. आज से इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा के लिए बंद’.

पाखी का दिल टूट गया. सात जन्मों तक साथ निभाने की कसमें खाने वाले रिश्ते एक झटके के साथ टूट  गए. 6 महीने की मोहलत भी उन के रिश्ते को नहीं जोड़ पाई.

समय बीतता गया. जीवन पटरी पर आने लगा. पाखी ने एक स्कूल में नौकरी कर ली. घर पर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी. अरुण हर दूसरे हफ्ते बच्चों से मिलने आते और दिनभर उन को होटल व माल घुमाते. शाम को बच्चे जब लौटते तो कभी उन के हाथों में खिलौने कभी चौकलेट तो कभी किताबें होतीं.

पाखी कभीकभी अरुण को चाय के लिए पूछ लेती. पर चाय की चुस्कियों की बीच एक अजीब सा सन्नाटा पसरा रहता. दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं होती.शब्द मानो खो से गए थे. एक बार चीकू का जन्मदिन था. अरुण ने चीकू से वादा किया था उसे पसंदीदा होटल में खाना खिलाएंगे. इस बार बच्चों की जिद के आगे पाखी की भी एक  न चली. कितने दिनों बाद वह किसी होटल में आई थी. अरुण वेटर को खाने का और्डर दे रहे थे.

पाखी ने चोर निगाहों से अरुण की ओर देखा…कितना कमजोर लगने लगा था. चेहरे की रौनक भी न जाने कहां खो गई थी. पाखी का भी तो कुछ ऐसा ही हाल था…पहननेओढ़ने का शौक तो न जाने कब का मर चुका था. आईने की तरफ देखे तो जमाना हो गया था. पाखी ने गहरी सांस ली.

अरुण पाखी और बच्चों छोड़ कर वापस अपने घर लौट गए. चीकू आज बहुत खुश था. आज उस के पापा ने उसे रिमोट कंट्रोल कार गिफ्ट में दी थी. पाखी ने कपड़े बदले और टीवी खोल कर बैठ गई. हर तरफ कोरोना का समाचार चल रहा था. समाचारवाचक गला फाड़फाड़ चिल्ला रहा था. दुनियाभर के सभी देशों में यह बीमारी अपने पैर पसार चुकी है. इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है. भारत के प्रधानमंत्री ने भी इस संबंध में सख्त निर्णय लेते हुए आज रात 12 बजे से लौकडाउन की घोषणा की है.

पाखी के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं.  घर में राशन और जरूरत का सामान सब तो लाना पड़ेगा. तभी मोबाइल की घंटी बजी…”पाखी, मैं… मैं अरुण बोल रहा हूं.” क्या कहती पाखी, उस की आवाज तो वह हजारों में भी पहचान सकती थी. “पाखी, तुम ने टीवी देखा?”

“हां, वही देख रही थी”.

“अगर तुम्हें कोई एतराज न हो तो बच्चों के साथ घर आ जाओ. पता नहीं कल क्या हो. जब तक सासें हैं, मैं अपने बच्चों के साथ रहना चाहता हूं,” अरुण की आवाज में निराशा का स्वर सुनाई दिया. पता नहीं वह क्या था.

पाखी अरुण को मना नहीं कर पाई, “पर अरुण, आप आएंगे कैसे? कल से तो निकलना बंद हो जाएगा”.

“तुम तैयारी करो, मैं अभी आ रहा हूं”. पता नहीं वह  कौन सा धागा था जो पाखी को खींचता ले जा रहा था. बच्चे खुशी से नाच रहे थे कि वे पापा के पास रहने जा रहे हैं पर वे मासूम यह नहीं जानते थे कि उन की यह खुशी कितने दिनों की है.

बच्चों की आवाजों से सासससुर कमरे से निकल आए. सासससुर की सवालिया निगा्हें उसे अंदर तक भेद गईं. “यह यहां क्या कर रही, नशा उतर गया सारा,” मम्मीजी ने भुनभुनाते हुए तीर छोड़ा. “मां, इन्हें मैं ले कर आया हूं,” अरुण ने सख्ती से कहा.

“चीकू, मिष्टि चलो, दादी व बाबा का पैर छुओ,” पाखी की बात सुन कर बच्चों ने झट से पैर छू लिए. मम्मी वहां भी ताना मारने से नहीं चूकीं, “चलो, कुछ तो संस्कार दिए वरना…”

“पापा, आप का कमरा कहाँ है?” अरुण ने उंगली से कमरे की तरफ इशारा कर दिया. बच्चे हल्ला मचाते हुए उस ओर भागे. कितने वर्षों बाद अरुण के चेहरे पर मुसकान आई थी.

पाखी कमरे के बाहर आ कर ठिठक कर रह गई. पैर जम से गए. जिस कमरे में वह दुलहन बन कर आई थी, आज वह उसे अपरिचितों की तरह देख रहा था. “मां, हम पापा के पास ही सोएंगे.” “अरे नहीं, तुम लोग बहुत पैर चलाते हो, पापा को दिक्कत होगी.” “पाखी, इन्हें यहीं रहने दो,” अरुण ने कहा था. अरुण की आंखों में अजीब सा दर्द उस ने महसूस किया था. वह आगे बोला, “सोनल और सोबित की शादी के बाद कमरा खाली पड़ा है. मैं तुम्हारा सामान उसी कमरे में रख देता हूँ.

सब अपनेअपने कमरे में चले गए. पाखी की आंखों से नींद कोसों दूर थी. सारी रात करवटें बदलते बीत गई. भोर में न जाने कब आंखे लग गईं. बरतनों की आवाज से पाखी की नींद टूट गई. ‘अरे इतना दिन चढ़ आया’ पाखी बुदबुदा कर उठ बैठी. आने को तो वह अरुण के साथ चली आई पर यह सब क्या इतना आसान था.

सहमे हुए कदमों से उस ने ड्राइंगरूम में कदम रखा. अरुण झाड़ू लगा रहे थे. मम्मीजी बरतन धो रही और पापाजी…पापाजी शायद चाय बनाने की कोशिश कर रहे थे. पाखी के कदमों की आहट सुन कर मम्मीजी बड़बड़ाईं, “आ गई महारानी.” पाखी ने सुन कर भी अनसुना कर दिया. उस ने सोचा, ‘वह कौन सा यहां बसने आई है. कुछ ही दिनों की तो बात है. फिर वही जिंदगी और फिर वही कशमकश.

“पाखी, तुम जग गईं,”  अरुण की आवाज़ थी. “आप…आप क्यों झाडू लगा…” पाखी बोल ही रही थी कि अरुण बोल पड़ा, “अरे वह अचानक लौकडाउन हो गया न, इसलिए कोई कामवाली काम करने नहीं आएगी. अब तो अपना हाथ जगन्नाथ.” इतना कहने के साथ ही अरुण के चेहरे पर सहज मुसकान आ गई. कितना बदल गया है इन सालों में सबकुछ.

जिस अरुण को औफिस के कामों, मम्मीजी को पूजापाठ और पापाजी को अखबार से फुरसत नहीं मिलती थी, आज वक्त ने सबकुछ सिखा दिया था. पाखी के लिए समय काटना मुश्किल हो रहा था. मम्मीजी ने शुरूशुरू में पाखी के चौके में घुसने पर नाकभौं सिकोड़ी. पर अरुण के सख्त चेहरे और परिस्थितियों के आगे को वे ढीली पड़ गईं. शुरूशुरू में रिश्तेदारों के फोन आते रहते और घर बैठेबैठे आग में घी डालने का काम करते रहते पर जैसेजैसे लौकडाउन की समयसीमा खिसकती रही, उन के फोन आने बंद हो गए.

पाखी ने घर की सारी जिम्मेदारी संभाल ली. उसे देख कर लगता ही नहीं था कि वह इस घर से कभी गई भी थी. पापा की नीबू वाली चाय, मम्मीजी की बिना चीनी वाली चाय और अरुण की चीनी कम ज्यादा दूध वाली चाय… आज भी उसे याद थी. पर इन बीते सालों में एक एक बहुत बड़ा बदलाव आया था. जो पाखी अकेले दिनभर घर के कामों में जूझती रहती थी, आज हर आदमी उस की सहायता के लिए तत्पर था. मम्मीजी सब्जी काट कर दे देतीं तो अरुण धुले कपड़ो को फैलाने व तह लगाने में उस की मदद कर देता. बच्चे दिनभर बाबा और दादी की रट लगाए रहते. अरुण को लगा मानो उस के घर की खुशियां वापस लौट आई हों.

लौकडाउन की तारीख बारबार बढ़ रही थी. सब बहुत परेशान थे, पर अरुण और पाखी के सूखते रिश्ते को मानो नया जीवन मिल गया था. सब लोग ड्राईंगरूम में समाचार देख रहे थे… ‘कोरोना की व्यापकता को देखते हुए पूरे देश को कई जोन में बांट दिया गया है. लौकडाउन में कुछ छूट दी जाएगी. कल से कुछ जरूरी दुकानें और प्रतिष्ठान कुछ नियमों के साथ खुलेंगे. पर अभी भी सावधानी बरतने की आवश्यकता है.

“मां, हम  लोग का शहर किस जोन में आएगा?” चीकू ने पूछा तो पाखी ने बताया, “ग्रीन”. “मां, तो क्या अब हम वापस अपने घर जाएंगे. अब हम पापा के साथ नहीं रहेंगे?” चीकू की बात सुन कर सब सकते में आ गए. किसी के पास कोई जवाब नहीं था. पाखी ने धीरेधीरे अपना सामान समेटना शुरू किया. पता नहीं क्यों उस का मन भारी हो रहा था. पर किस हक़ से वह यहाँ रुक सकती है. न जाने कितने सवाल उस के मनमस्तिष्क में घूम रहे थे. बच्चे उदास मन से गाड़ी में जा कर बैठ गए.

पाखी ने पापा और मम्मीजी के पैर छुए. “खुश रहो, अखंड…. यह क्या कहने जा रहे थे वे. वे बुझेमन से अपने कमरे की तरफ चले गए. अरुण को समझ नहीं आ रहा था कि वह पाखी से क्या कहे. इन बीते दिनों में दोनों ने एकदूसरे को जितना करीब से समझा था उतना तो पहले भी नहीं जानते थे. पाखी के कान भी न जाने क्या सुनने को आतुर थे. एक बार, बस एक बार तो कह कर देखो.

अरुण के शब्द लड़खड़ा रहे थे, “पाखी…पाखी, क्या ऐसा नहीं हो सकता तुम हमेशा के लिए यही रुक जाओ”. अरुण की आंखों से आंसू बह रहे थे, पश्चात्ताप के आँसू, उम्मीद के आँसू. पाखी, बस, यही तो सुनना चाहती थी. कितने साल लगा दिए अरुण ने यह कहने के लिए.

पाखी की आंखों से भी आंसू बह रहे थे. उस ने अपने आंसुओ को आंचल में समेटा. अरुण बहुत देर हो रही है, मुझे…मुझे अब जाने दीजिए हमेशा के लिए लौट आने के लिए. दोनों की आंखें आंसुओ से भरी थीं. पर ये आंसू खुशी के थे. करोना ने न जाने कितनों की गोद उजाड़ी, कितनों का सुहाग छीना पर आज किसी के घर की खुशियों का कारण भी यह कोरोना ही बना था.

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