सुरेखा जल्दीजल्दी सूटकेस में सामान रखने में व्यस्त थी. समय और आवश्यकता के अनुसार चुनी गईं कुछ साङियां, ब्लाउज के सैट्स, सूट के साथ मैचिंग दुपट्टे. 2-3 चूड़ियों के सैट्स, कुछ रूमालें और रोजमर्रा की जरूरत की ऐसी चीजें जिन की उपस्थिति जीवन में अनिवार्य होती हैं, धीरेधीरे संभाल कर रख रही थी.

इन में भी सब से अधिक संभाल कर रखे गए उस के सारे सर्टिफिकैट्स, मार्कशीट्स और नौकरी के लिए आया कौल लेटर भी था.

इन व्यस्तताओं के बीच उस ने कई बार मणि की ओर बेपरवाही से देखा और फिर व्यस्त हो गई. सोफे पर स्थिर बैठा मणि उसे एकटक ऐसे देख रहा था मानों बहुत कुछ कहना चाह रहा हो, लेकिन उस के शब्द किसी अथाह सागर में डूबते जा रहे हों.

उधर सुरेखा थी कि उस की ओर स्थिर हो कर ताक भी नहीं रही थी मानों जताना चाह रही हो कि तुम ने मुझे कब सुना था, जो आज मैं तुम्हारी भावनाओं को समेट लूं?

जब मैं तुम्हें अपने पास रोकना चाहती थी, तब तुम हाथ छुड़ा कर चले जाते थे. जब मैं तुम से कुछ कहने का प्रयास करती, तब तुम ध्यान नहीं देते थे क्योंकि तुम्हारे अनुसार मैं बेमतलब की बातें ही तो करती थी. फिर एक अहंकारी पुरुष मेरी बातों में क्यों दिलचस्पी ले पाता?

ओह, मैं ने क्याक्या कहना चाहा था तुम से मणि. क्या एक पति का इतना भी कर्तव्य न था कि वह अर्धांगिनी कही जाने वाली अपनी पत्नी के मनोभावों को समझना तो दूर, सुन भी न सके?

मुझे आज भी याद है मणि, जब मैं ब्याह कर प्रथम दिवस तुम्हारे घर आई थी. ससुराल में पदार्पण करने के बाद नई दुलहन को देखने वालों के उत्साह ने मुझे क्षण भर भी आराम करने नहीं दिया था. हां, तुम ने आते ही सो कर अपनी थकान उतार ली थी, लेकिन मैं भारी बनारसी साड़ी के बोझ तले दुलहन बनी बैठी रही.

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