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उस दिन ईशिता के मन में फूल ही फूल खिल आए. बरतन धोती, खाना बनाती ईशिता को कुछ व्याप नहीं रहा था. फटकारें, उलाहने भी उसे कष्ट नहीं पहुंचा रहे थे. वह तो जैसे किसी और ग्रह पर पहुंच गई थी जहां सुंदर फूल थे, कलकल करते  झरने थे, मधुर कलरव करते पक्षी थे.

वह खुश थी. ढेरों काम कर के भी तरोताजा थी. उस के अंगअंग से उल्लास झलक रहा था.पुष्कर उस से जब तब परामर्श लेते, महत्त्व देते तो उस का खोया गौरव बोध लौटने लगा. वह गोल्ड मैडलिस्ट थी इस की प्रशंसा करते हुए उस के तौरतरीकों और पुरातनपंथी सोच पर चोट करना न भूलते.

जिस अपनेपन की, 2 मीठे बोलों की भूखी थी वह मिले. धीरेधीरे प्रशंसाभरी नजर और मीठे बोल उसे रोमांच से भरने लगे. पूरा दिन एक मीठी सिहरन रहती. लगता जैसे वह भी कुछ है, कोई उसे भी सराह सकता है, उस की भी चाहनाकामना कर सकता है.

अब उसे सब अच्छा लगता, अपनेआप मुग्ध करता, खुशी के अंगराग से वह दमकती रहती. ईशिता का मन करता कहीं घने वृक्षों के मध्य छोटी संकरी पगडंडी पर वह पुष्कर के साथ चले, कहीं  झील के किनारे बैठ कर बातें करे. खूब सारी बातें.

मन की बातें. बस बातें करते जाएं ढेर सारी बातें... बातें ही बातें.ईशिता के इस रूपांतरण पर पति सजग हुए. उन का ध्यान उस की ओर बढ़ा. पर अब वह अपने में खुश रहती.अपेक्षाओं से मुक्त और प्रतिपल की कचकच से उदासीन हो मन में छिपे आनंद को महसूसती उमंगों से भरी खुश रहती.

उमंगें जाग रही थीं. पति सतर्क हो रहे थे. संस्कारों में बंधी, मूल्यों में जकड़ी ईशिता के मन में पति के लिए अगाध प्यार था. हां, आहत अवश्य थी वह उन की उपेक्षा से, उन की अवहेलना से, पर वह न उन्हें धोखा देना चाहती थी, न उन का सिर  झुकाना चाहती थी पर कितना अंतर था पुष्कर में और उस के पति में. वह कहता, ‘‘जैसा तुम चाहो, एज यू विश’’ और पति उस के हर इशू को स्वयं ही निर्णीत करना चाहते.

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