सोमेन अगले ही दिन आया. शाम को 6 बजे कुमुद, रघु, नीता सभी पिक्चर के लिए तैयार हो रहे थे कि वह आ पहुंचा. उस के आने पर नक्शा पलट गया. कुमुद को अपना पड़ोस का पुराना दोस्त बता कर रघु से उस का परिचय कराना पड़ा. फिल्म के टिकट खरीदे नहीं थे इसलिए पिक्चर जाना छोड़ सभी बैठ गए.
नाश्ते पर सोमेन कहने लगा, ‘‘कुम्मू बहुत जंचने लगी है अब तो.’’
कुमुद सिर झुकाए प्लेट में चम्मच इधरउधर करती रही. वह अपने में मस्त कहता रहा, ‘‘सच रघु, यह पहले बड़ी दुबलीपतली सी थी. अब तो काफी भर गया है बदन. लड़कियां कहती हैं न ब्याह का पानी...’’ वह कुमुद को देख कर हंसा, ‘‘यह नटखट भी कम नहीं रही है. बचपन में, खेल ही खेल में इस ने एक बार मेरी कलाई पर इतने जोर से काट लिया कि कप भर खून तो
बहा ही होगा. अभी तक दाग बना है,’’ उस ने कलाई का दाग दिखाया रघु को. फिर मजे से किलकारी सी मार कर हंसा, ‘‘घर आ कर मैं ने मां से कहा कि पड़ोस के एक साथी ने खेल में काट लिया है... ये देवीजी उस दिन पिटने से बच गईं.’’
कुमुद ने कनखियों से देखा, रघु का चेहरा भावहीन, जड़ जैसा बना था. नीता सोमेन की
बातें उत्सुकता से सुन रही थी. कुमुद की इच्छा हुई एक प्लेट नीचे गिरा दे ताकि बातों का विषय बदले.
उधर सोमेन अपनी ही रौ में कहता जा रहा था, ‘‘अब तो यह बड़ी गंभीर बन गई है. कोई शैतानी तो नहीं करती?’’
रघु के होंठ फड़फड़ाए. जैसी किसी गहरे कुएं से आवाज आई हो, ऐसे स्वर में बोला, ‘‘नहीं, बड़ी सीधी है.’’