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कुमुद कुछ नहीं बोली. बोलने को अब बचा ही क्या था. विवाह के बाद वर्षों तक प्रत्येक नारी के अचेतन मन में जिस स्थिति के आ धमकने का सतत भय समाया रहता है, वही शायद आ पहुंची है.

अपनी समस्त कुंठाओं और प्लावन के साथ, जिस में सबकुछ बह जाता है. उसे अपनी शक्तियां बटोरनी चाहिए. पर किस के विरुद्ध. रघु के? सोमेन के या स्वयं अपने? इस मूर्ख, बेहूदे छोकरे सोमेन को यह क्या सूझ. क्यों निरर्थक बकवास करने आ धमका? रत्तीभर अक्ल नहीं है उसे. पर उस का भी क्या दोष.

पासपड़ोस का कोई बचपन की मुंहबोला दोस्त अपनी बचपन के दोस्त की ससुराल जा कर मिले ही नहीं. खुल कर बचपन की बातें न करे. यह कैसी विकृति है कि इस संबंध को सदैव गलत ही समझ जाए. दोषी रघु है. वही अपने मन में विकृतियां पाले हुए है. उसे अपने पुरुष भाव का बड़ा अहंकार है. वह इतने संकीर्ण मन का है, यह कुमुद को पहले क्या पता था.

और तुम? महामूर्ख हो, कुमुद. जब कोई बात ही नहीं तो यह अपराधियों सा सहमना, बिना पूछे रघु को सफाई देने की चेष्टा, यह सब क्या है? क्या सचमुच तुम्हारे मन में भी चोर है? रघु ने चोर की दाढ़ी में तिनका देखा तो वह क्या करे? वह भी तो आदमी है, पति है.

हम लाख आधुनिक बनें, दोनों कमाऊ हों नरनारी का रिश्ता वही आदिम बना रहेगा. पुरुष अपनी जागीर में किसी का रत्तीभर हस्तक्षेप सहन नहीं कर सकता, उसे भड़का देने में कैसीकैसी अजीब सी स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं, चाहे बात कुछ भी न हो, पर...

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